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________________ * इसी प्रकार शुभतिलक (आचार्य बनने पर जिनप्रभसूरि) ने गायत्री विवरण लिखा है। इसमें भी शुभतिलकोपाध्याय रचित लिखा है। अभय जैन ग्रन्थालय की प्रति में इस प्रकार उल्लेख मिलता है: चक्रे श्रीशुभतिलकोपाध्यायैः स्वमतिशिल्पकल्पान्। व्याख्यानं गायत्र्याः क्रीडामात्रोपयोगमिदम्॥ इति श्रीजिनप्रभसूरि विरचितं गायत्री विवरणं समाप्तं। गायत्री-विवरण प्रो. हीरालाल रसिकदास कापड़िया सम्पादित अर्थरत्नावली पुस्तक में पृष्ठ 71 से 82 तक में प्रकाशित हो चुका है। उसमें पुष्पिका नहीं है। ___ परवर्ती ग्रन्थकारों ने शुभतिलकोपाध्याय प्रणीत इन दोनों कृतियों को जिनप्रभसूरि रचित ही स्वीकार किया है। यही कारण है कि मैंने भी "शासन प्रभावक आचार्य जिनप्रभ और उनका साहित्य" पुस्तक के पृष्ठ 34 पर लिखा है कि जिनप्रभसूरि का दीक्षा नाम शुभतिलक ही था, और आचार्य बनने पर जिनप्रभसूरि बने। प्रकरण रत्नाकर भाग-२ सा. भीमसिंह माणक ने (प्रकाशन सन् 1933) पृष्ठ नं. 263 से 265 निरवधिरुचिरज्ञानं प्रकाशित हुआ है। जिसकी पुष्पिका में लिखा है: इति श्रीजिनप्रभसूरिविरचितं अष्टभाषात्मकं श्रीऋषभदेवस्तवनं समाप्तम्। इसी प्रकार लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृत विद्यामंदिर, अहमदाबाद से प्रकाशित संस्कृतप्राकृत भाषानिबद्धानां ग्रन्थानांसूची भाग-१ ( मुनिराज श्री पुण्यविजयजी संग्रह) के क्रमांक 1363 परिग्रहण पंञ्जिका नं. 6754/5, पृष्ठ 176-177, लेखन संवत् 1583, दयाकीर्तिमुनि द्वारा लिखित और पण्डित सिंहराज पठनार्थ की अवचूरि सहित इस प्रति में भी जिनप्रभसूरिजी की कृति माना है। इस अवचूरि की पुष्पिका में लिखा है:- "इति शुभतिलक इति प्राक्तननाम श्रीजिनप्रभसूरिविरचित भाषाष्टक संयुतस्तवावचूरिः।" इस प्रति की अवचूरि और प्रकाशित अवचूरि पृथक्-पृथक् दृष्टिगत होती है। . इसी प्रकार श्री अगरचन्दजी भंवरलालजी नाहटा ने भी विधिमार्गप्रपा शासन प्रभावक जिनप्रभसूरि निबन्ध में और मैंने भी शासन प्रभावक आचार्य जिनप्रभ और उनका साहित्य में इस कृति को जिनप्रभसूरि कृत ही माना है। श्री जिनप्रभसूरि रचित षडभाषामय चन्द्रप्रभ स्तोत्र प्राप्त होता है। अतः शुभतिलक रचित इस स्तोत्र को भी जिनप्रभसूरि का मानना ही अधिक युक्ति संगत है। लघु खरतरशाखीय आचार्य श्रीजिनसिंहसूरि के पट्टधर आचार्य जिनप्रभ १४वीं सदी के प्रभावक आचार्यों में से थे। मुहम्मद तुगलक को इन्होंने प्रतिबोध दिया था। इनके द्वारा निर्मित विविध तीर्थ कल्प, विधिमार्गप्रपा, श्रेणिक चरित्र (द्विसंधान काव्य) आदि महत्त्वपूर्ण कृतियाँ प्राप्त हैं। सोमधर्मगणि और शुभशीलगणि आदि ने अपने ग्रन्थों के कथानकों में भी इनको महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। इनका अनुमानित जन्मकाल 1318, दीक्षा 1326, आचार्य पद 1341 और स्वर्गवास संवत् अनुमानतः 1390 के आस-पास है। [अनुसंधान अंक-४०] लेख संग्रह 223
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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