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________________ वैदग्ध्यपूर्ण विज्ञप्ति-पत्र प्रेषित किया करता था। वर्तमान में केवल 7-8 ही पत्र प्राप्त हुए हैं तथा . श्री अगरचन्दजी नाहटा की सूचनानुसार आगम प्रभाकर मुनिराज श्री पुण्यविजयजी को कुछ नये विज्ञप्तिपत्र और प्राप्त हुए हैं। ग्रन्थों के संक्षिप्त परिचय से स्पष्ट है कि महोपाध्याय मेघविजयजी का प्राकृत, संस्कृत और मरु गुर्जर भाषा पर तथा वाङ्मय के प्रत्येक क्षेत्र पर पूर्ण अधिकार था। कवि की प्रतिभा तथा कवि के प्रत्येक ग्रन्थ पर कलापक्ष और भावपक्ष की दृष्टि से विचार-विमर्श एवं मूल्यांकन किया जाए तो स्वतंत्र ग्रन्थ तैयार हो सकता है जो कि इस निबन्ध के लिये उपयुक्त नहीं होगा। अतः इस निबन्ध को संवत् 1761 में अजबसागर गणि प्रणीत मेघविजयोपाध्यायस्तुति द्वारा पुष्पाञ्जली देता हुआ पूर्ण करता हूँमेघविजय उवझाय शिरोमणि पूरण पुण्य निधान के भारा, ग्यान के पूरतें दूर कियो सब लोकन के मति को अंधियारा। जा दिन लाग्गि उडुग्गण में रवि चंद अनारत तेज है सारा, ता दिन लों प्रतपो मुनिराज कहे कवि अजब भवोदधि तारा // 1 // ... भानु भयो जिन के तप-तेज तै मंद उद्योत सदा जगती में। ___ दूर गयो मरुदेश तें नीकरि मूढपणो थरकी धरती में। जा दिन तें फुनि मुंह कर्यो इत को तुम सुन्दर पूरब ही में, ता दिन तें दुख रोरव देश के दूर गये तजि के किन ही में // 2 // नाम जपै जिनके सुख होय बने अति नीको जगत्ति में सारे, भूरितरो सखरोइ तमाम अमाम बधे सुबिधि दिन मौरे। . वानी मैं जाकै मिली सब आय सुधाई सुधाई तजी सुर सारै। . मेघविजय उवझाय जयो तुम जा दिन लो दवि लोक में तारे॥३॥ [श्री मरुधरकेसरी मुनिश्री मिश्रीमलजी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ] 146 लेख संग्रह
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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