SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 243
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री भीमकवि रचित श्री विजयदानसूरि भास आचार्य पुरन्दर श्री विजयदानसूरि, श्री आनन्दविमलसूरि के पट्टधर थे। तपागच्छ पट्टावली के अनुसार विजयदानसूरि ५७वें पट्टधर थे। इनका जन्म 1553 जामला, दीक्षा 1562, आचार्य पद 1587 और 1622 वटपल्ली में इनका स्वर्गवास हुआ था / मन्त्री गलराज, गान्धारीय सा. रामजी, अहमदावादीय श्री कुंवरजी आदि इनके प्रमुख भक्त थे। महातपस्वी थे। इनका प्रभाव खम्भात, अहमदाबाद, पाटण, महसाणा और गान्धारबन्दर इत्यादि स्थलों पर विशेष था। इनके द्वारा प्रतिष्ठित शताधिक मूर्तियाँ प्राप्त हैं। . ___ इनके सम्बन्ध में कवि भीमजी रचित स्वाध्याय का एक स्फुट पत्र प्राप्त है। जिसका माप . . 2641143 से.मी. है, पत्र 1, कुल पंक्ति 15, प्रति अक्षर 52 हैं। लेखन १७वीं शताब्दी है। भास की भाषा गुर्जर प्रधान है। कहीं-कहीं पर अपभ्रंश भाषा का प्रभाव की दृष्टिगत होता है / इस पत्र के अन्त में श्री विजयहीरसूरि से सम्बन्धित दो सज्झायें दी गई हैं। ___ इस कृति में विजयदानसूरि के सम्बन्ध में एक नवीन ज्ञातव्य वृत्त प्राप्त होता है। जिसका यहाँ उल्लेख आवश्यक है: विक्रम संवत् 1612 में आचार्यश्री नटपद्र (संभवत नडियाद) नगर पधारे। संघ ने स्वागत किया। वहाँ का सम्यक्त्वधारी श्रावक संघ बहुत हर्षित हुआ। साह जिणदास के पुत्र साह कुंवरजी के घर आचार्य ने चातुर्मास किया। अनेक प्रकार के धर्मध्यान हुए। मासश्रमण आदि अनेक तपस्याएं हुई। अनेक मार्ग-भूलों को मार्ग पर लाया। भादवें के महीने में वहाँ के समाज ने अत्यधिक लाभ लेते हुए पुण्य का भण्डार भरा / तपागच्छाधिपति श्री आणन्दविमलसूरि के शिष्य विजयदानसूरि दीर्घजीवि हों। श्री लक्ष्मण एवं माता भरमादे के पुत्र ने दीक्षा लेकर जग का उद्धार किया। भीमकवि कहता है कि इनका गुणगान करने से संसार सागर को पार करते हैं। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्यगण विशिष्ट कारणों से श्रावक के निवास स्थान पर भी चातुर्मास करते थे। रचना के शेष भाग में आचार्यश्री के गुणगौरव, साधना, तप-जप-संयम का विशेष रूप से वर्णन विजयदानसूरि के माता-पिता के नामों का उल्लेख तपागच्छ पट्टावली में प्राप्त नहीं है, वह यहाँ प्राप्त है। भक्तजन इसका स्वाध्याय कर लाभ लें इसी दृष्टि से यह भास प्रस्तुत किया जा रहा है.। 232 लेख संग्रह
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy