________________ गोत्रीय यशोवर्धन सुहवदेवी के पुत्र थे। इनका जन्म वि० सं० 1210, चैत्र कृष्णा 8 को हुआ था। वि० सं० 1217, फाल्गुन शुक्ला 10 को मणिधारी जिनचन्द्रसूरि ने दीक्षा देकर इनका नाम नरपति रखा था। वि० सं० 1223 भाद्रपद कृष्णा 14 को मणिधारी जिनचन्द्रसूरि का स्वर्गवास हो जाने पर उनके पाट पर वि० सं० 1223 कार्तिक शुक्ला 13 को युगप्रधान जिनदत्तसूरि के पादोपजीवि जयदेवाचार्य ने नरपति को स्थापित किया था और इनका नाम जिनपतिसरि रखा था। आचार्य पदारोहण के समय इनकी अवस्था 14 वर्ष की थी। इनके लिए षट्त्रिंशद् वादविजेता विशेषण का उल्लेख अनेक ग्रन्थकारों ने किया है किन्तु गुर्वावली में कुछ ही वादों का उल्लेख प्राप्त होता है। वि० सं० 1238 में आशिका (हासी) में नरेश भीमसिंह की सभा में प्रामाणिक दिगम्बर विद्वान् के साथ विजय प्राप्त की थी। वि० सं० 1239 में अंतिम हिन्दू सम्राट महाराजा पृथ्वीराज चौहान की राज्य सभा में पद्मप्रभ को शास्त्रार्थ में पराजित कर विजय प्राप्त की थी। इस शास्त्रार्थ के समय प्रधानमंत्री कैमास, पंडित वागीश्वर, जनार्दन गौड़, पंडित विद्यापति आदि उपस्थित थे। वि० सं० 1244 में चन्द्रावती में पूर्णिमापक्षीय श्री अकलंकदेवसूरि और पौर्णमासिक गच्छीय श्री तिलकसूरि के साथ शास्त्र-चर्चा हुई थी। इसी वर्ष आशापल्ली (अहमदाबाद) में चैत्यवासियों के प्रमुख आचार्य प्रद्युम्नाचार्य के साथ आयतन और अनायतन के संबंध में शास्त्रार्थ हुआ था और उसमें आचार्यश्री ने विजय प्राप्त की थी। वि० सं० 1277, आषाढ़ शुक्ला 10 को इनका स्वर्गवास हुआ था। जिनपतिसूरि प्रौढ़ विद्वान् एवं समर्थ साहित्यकार थे। इनके द्वारा प्रणीत 1. संघपट्टक बृहद्वृत्ति, 2. पञ्चलिंगी प्रकरण बृहद्वृत्ति, 3. प्रबोधोदयवादस्थल तथा आठ-दस स्तोत्र प्राप्त हैं। 1. प्रस्तुत उज्जयन्तालङ्कार नेमिजिनस्तोत्र 10 पद्यों का है, वसन्ततिलका छन्द में रचित है और इसमें भगवान् नेमिनाथ के पञ्च कल्याणकों की भाव-गर्भित स्तुति की गई है। 2. श्री जिनेश्वरसूरि (द्वितीय) - मरोट निवासी भांडागारिक नेमिचंद्र के पुत्र थे और इनकी माता का नाम लक्ष्मणी था। वि० सं० 1245, मार्गशीर्ष शुक्ला 11 को इनका जन्म हुआ था। अम्बिका देवी के स्वप्नानुसार इनका जन्म नाम अम्बड़ था। वि० सं० 1258 चैत्र कृष्णा 2 खेड़ नगर के शांतिनाथ जिनालय में श्री जिनपतिसूरि ने इनको दीक्षित कर वीरप्रभ नाम रखा था। वि० सं० 1273 में मनोदानंद के साथ जिनपालोपाध्याय का जो शास्त्रार्थ हुआ था, उस शास्त्रार्थ के समय वीरप्रभगणि भी सम्मिलित थे। जिनपतिसूरि के मुख से महाविद्वानों की सूची में वीरप्रभगणि का भी नामोल्लेख मिलता है। जिनपतिसूरि ने अपने पाट पर वीरप्रभगणि को बैठाने का संकेत भी किया था। वि० सं० 1277, माघ सुदि 6 को पट्टधर आचार्य बने। उस समय इनका नाम जिनेश्वरसूरि (द्वितीय) रखा गया। इनके द्वारा विविध स्थानों पर विविध प्रतिष्ठाएँ हुई, उनमें से कुछ प्रतिमाएँ आज भी विद्यमान हैं (देखें - म. विनयसागर द्वारा लिखित खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास)। वि० सं० 1331 आश्विन कृष्णा 5 को जालौर में इनका स्वर्गवास हुआ था। (विस्तृत परिचय के लिए देखें - जिनपालोपाध्याय रचित, खरतरगच्छ बृहद् गुर्वावली और म. विनयसागर द्वारा लिखित खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास)। इनके द्वारा 1313 में रचित श्रावकधर्मविधि प्रकरण और लगभग 12-13 स्तोत्र प्राप्त हैं। श्रावकधर्मविधि प्रकरण पर लक्ष्मीतिलकोपाध्याय ने विक्रम सम्वत् 1317 में जालौर में बृहद्-वृत्ति की रचना की थी, जो अभी तक अप्रकाशित है। प्रस्तुत गौतम गणधर स्तोत्र प्राकृत भाषा में नौ गाथाओं में रचित है। इसमें उनके विशिष्ट गुणों का वर्णन करते हुए जीवन की विशिष्ट-विशिष्ट घटनाओं का उल्लेख है। आचार्य बनने के पूर्व रचना होने से इसमें वीरप्रभ का ही नामोल्लेख किया गया है। लेख संग्रह