________________ श्री नेमिनाथादि-स्तोत्र-त्रय युगप्रधान दादा श्री जिनदत्तसूरिजी रचित गणधरसार्द्धशतक की बृहद्वृत्ति लिखते हुए श्री सुमतिगणि ने उद्धरण के रूप में अनेक दुर्लभ एवं पूर्वाचार्यों रचित स्तोत्रादि दिये हैं, उनमें से तीन स्तोत्र यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं सुमतिगणि - ये सम्भवतः राजस्थान प्रदेश के निवासी थे। इनके जीवन के सम्बन्ध में कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती है। जिनपालोपाध्याय रचित खरतरगच्छ बृहद् गुर्वावलि केआधार से वि० सं० 1260 में आषाढ़ बदी 6 के दिन गच्छनायक श्री जिनपतिसूरि ने इनको दीक्षा प्रदान की थी और इनका नाम सुमतिगणि रखा था। सं० 1273 में बृहद्वार में नगरकोट के महाराजा पृथ्वीचंद्र की उपस्थिति में पंडित मनोदानंद के साथ शास्त्रार्थ करने के लिए जिनपालोपाध्याय के साथ समतिगणि भी गये थे। यहाँ उनके नाम के साथ गणि शब्द का उल्लेख है, अतः 1273 के पूर्व ही आचार्य जिनपतिसूरि ने इनको गणि पद प्रदान कर दिया था। इस शास्त्रार्थ में जिनपालोपाध्याय जयपत्र प्राप्त करके लौटे थे। सम्वत् 1277 में जिनपतिसूरि ने स्वर्गवास से पूर्व संघ के समक्ष कहा था - "वाचनाचार्यसूरप्रभ-कीर्तिचन्द्र-वीरप्रभगणिसुमतिगणिनामानश्चचत्वारः शिष्या महाप्रधानाः निष्पन्ना वर्तन्ते।" इस उल्लेख से स्पष्ट है कि गणनायक की दृष्टि में सुमतिगणि का बहुत बड़ा स्थान था और ये उच्च कोटि के विद्वान् थे। सुमतिगणि द्वारा रचित केवल दो ही कृतियाँ प्राप्त होती हैं - 1. गणधरसार्द्धशतक बृहद् वृत्ति - इसका निर्माण कार्य खम्भात में प्रारम्भ किया था और इस टीका की पूर्णाहुति सम्वत् 1295 में मण्डप (माण्डव) दुर्ग में हुई थी। गणधरसार्द्धशतक का मूल 150 गाथाओं का है, उस पर 12,105 श्लोक परिमाण की यह विस्तृत टीका है। इस टीका में सालंकारी छटा और समासबहुल शैली दृष्टिगत होती है। यह बृहद्वृत्ति अभी तक अप्रकाशित है। 2. नेमिनाथरास - यह अपभ्रंश प्रधान मरुगुर्जर शैली में है। श्लोक परिमाण 57 है। बृहद्वृत्ति में अनेकों उद्धरण प्राप्त होते हैं। कई-कई उद्धरण तो लघु कृति होने पर पूर्ण रूप से ही उद्धृत कर दिये हैं। मूल के पद्य 2 और 3 से 5 की व्याख्या करते हुए 3 स्तोत्र उद्धृत किये हैं - 1. आचार्य जिनपतिसूरि रचित उज्जयंतालंकार-नेमिनाथस्तोत्र, 2. श्री जिनेश्वरसूरि रचित गौतमगणधरस्तव, 3. श्री सूरप्रभ रचित गौतमगणधर स्तव। ये तीनों स्तोत्र प्रस्तुत करने के पूर्व इनके रचनाकारों का भी संक्षेप में परिचय देना आवश्यक है। श्री जिनपतिसूरि - युगप्रधान दादा जिनदत्तसूरि के प्रशिष्य और मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरिजी के पट्टधर श्री जिनपतिसूरि का समय विक्रम सम्वत् 1210 से 1277 तक का है। इनका विस्तृत जीवनचरित्र जिनपालोपाध्याय ने खरतरगच्छ बृहद् गुर्वावली में सालंकारिक भाषा-शैली में दिया है। उसी के अनुसार उल्लेखनीय बातों का यहाँ उल्लेख किया जा रहा है। विक्रमपुर (जैसलमेर के समीपवर्ती) माल्हू लेख संग्रह 36