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________________ श्रीमज्जिनेश्वरसूरि-प्रणीतम् / श्रीमुनिचन्द्रसूरिरचित-विवृत्युपेतम् छन्दोनुशासनम् ___ क्षीरस्वामी ने छन्द और छन्दस् पदों की नियुक्ति छद धातु से बतलाई है। अन्य आचार्यों के मत से छन्द शब्द 'छदिर् ऊर्जने, छदि संवरणे, चदि आह्लादने दीप्तौ च, छद संवरणे, छद अपवारणे' धातुओं से निष्पन्न है। व्यावहारिक दृष्टिकोण से छंद अक्षरों के मर्यादिक प्रक्रम का नाम है। जहाँ छंद होता है वहीं मर्यादा आ जाती है। मर्यादित जीवन में ही साहित्यिक छंद जैसी स्वस्थ-प्रवाहशीलता और लयात्मकता के दर्शन होते हैं। भावों का एकत्र संवहन, प्रकाशन तथा आह्लादन छंद के मुख्य लक्षण है। इस दृष्टि से रुचिकर और श्रुतिप्रिय लययुक्त वाणी ही छंद कही जाती है- 'छंदयति पृणाति रोचते इति छंदः।' वैदिक संहिता और काव्यशास्त्रों में विशुद्ध और लयबद्ध उच्चारण छन्दशास्त्र के ज्ञान से ही सम्भव है। वेद के षडङ्ग में छंद को भी ग्रहण किया गया है। छंद के प्राचीन आचार्य शिव और बृहस्पति माने जाते हैं। संस्कृत छंदशास्त्र में आचार्य पिङ्गल द्वारा रचित पिङ्गल छन्दसूत्र ही प्राचीनतम माना जाता है। कुछ विद्वान् पिङ्गल को पाणिनी के पूर्ववर्ती मानते हैं और कुछ विद्वान् पाणिनी का मामा मानते .. राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर जैसलमेर ग्रन्थोद्धार योजना फोटोकॉपी नं. 231, प्लेट नं. 7, पत्र 13 ताड़पत्रीय प्रति १२वीं शदी का अन्तिम चरण और १३वीं शताब्दी का प्रथम चरण है। इसी फोटोकॉपी के आधार से मैंने उस समय अर्थात् दिसम्बर 1970 में इसकी प्रतिलिपि की थी। १२वीं-१३वीं शताब्दी की छन्दोशासन की प्रति होने के कारण उस शताब्दी पर दृष्टिपात करते हैं तो सुविहितपथप्रकाशक और खरतरविरुद धारक श्री जिनेश्वरसूरि के अतिरिक्त अन्य कोई इस नाम का आचार्य दृष्टिगत नहीं होता। साथ ही वादी देवसूरि के गुरु सौवीरपायी श्री मुनिचन्द्रसूरि के अतिरिक्त अन्य कोई इस नाम का आचार्य दृष्टिपात नहीं होता। अतः अन दोनों के सम्बन्ध में ही कुछ विचार प्रस्तुत किया जा रहा है। ११वीं शताब्दी के तृतीय चरण में अणहिलपुर पत्तन में श्री वर्द्धमानसूरि के शिष्य श्री जिनेश्वराचार्य ने महाराजा दुर्लभराज की राज्य सभा में चैत्यवासियों को निरुत्तरित कर सुविहित पथ का मार्ग उजागर किया था और महाराज दुर्लभराज से खरतरविरुद प्राप्त किया था। चैत्यवासी परम्परा को समाप्त करने के पश्चात् श्री जिनेश्वरसूरि के हृदय में यह विचार उत्पन्न हुआ कि प्राचीन साहित्य में श्वेताम्बर समाज का दर्शन और कथा साहित्य आदि पर कोई ग्रन्थ नहीं है। दुनिया के समक्ष रखने के लिए इन ग्रन्थों का निर्माण आवश्यक है। इसी दृष्टि को ध्यान में रखकर श्वेताम्बर परम्परा का प्रथम दर्शन ग्रन्थ प्रमालक्ष्म. कथा साहित्य में लीलावतीकहा और कथाकोष आदि की रचना की। अपने सहोदर एवं गुरुभाई श्री बुद्धिसागरसूरि को इस बात के लिए तैयार किया कि तुम व्याकरण आदि ग्रन्थों पर नवीन निर्माण करो। उन्होंने भी बुद्धिसागर/पंचग्रन्थी लेख संग्रह 269
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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