________________ दो पुत्र थे- रूपा और थिल्ला / रूप की पत्नी का नाम मेलू और चिपी था। उनका पुत्र नाथू था। नाथू के दो पुत्र राजा और समर थे। थिल्ला के दो पुत्र थे-हरिपाल और हरिश्चन्द्र। हरिपाल के दो पुत्र थे- हर्ष और जिनदत्त / हरिश्चन्द्र का पुत्र था उदयसिंह। श्रेष्ठी नरसिंह की भार्या का नाम धीरिणि था। उनके दो पुत्र हुए- भोजा और हरिराज / भोजा की पत्नी का नाम भावल देवी और उसका पुत्र गोधा था। उसके दो पुत्र थे- हीरा और धन्ना। श्रेष्ठी नृसिंह का द्वितीय पुत्र हरिराज छत्रधारी था। देवगुरु अरिहंत धर्म का उपासक था और स्वपक्ष का पोषण करने वाला था। हरिराज की दो पत्नियाँ थी- राजू और मेघाई। इधर पारख वंशीय कर्ण की प्रिया का नाम कर्णादे था। उसके चार पुत्र हुए- नरसिंह, महीपति, वीरम और सोमदत्त / चार ही पुत्रियाँ थी। जिसमें तीसरी पुत्री का नाम मेघाई था। जिसका विवाह हरिराज के साथ हुआ था। हरिराज के तीन पुत्र थे- जीवा, जिणदास और जगमाल / एक पुत्री थी जिसकी नाम मणकाई था। जीवराज की पत्नी का नाम कुतिगदेवी था। जिणदास की प्रिया का नाम जसमादे था। नरसिंह के तीन पुत्र थे- सहसकिरण, सूरा और महीपति / सहसकिरण के दो पुत्र थे- अद्दा और सद्दा / महीपति का पुत्र वच्छराज था। हरिराज का धर्मपुत्र सुभाग था। धर्मवान हरिराज अपने परिवार सहित तीर्थयात्रा, संघ पूजा, जैन धर्म की प्रभावना करता हुआ शोभायमान है। इधर भगवान महावीर स्वामी के पंचम गणधर पट्टधर सुधर्मा स्वामी हुए और उन्हीं की वंश परम्परा में हरिभद्रसूरि आदि प्रभाविक आचार्य हुए। शासन का उद्योत करने वाले उद्योतनसूरि के शिष्य वर्द्धमानसूरि हुए। इनके शिष्य जिनेश्वरसूरि ने पत्तन नगर में दुर्लभराज की राज्य सभा में खरतर विरुद प्राप्त किया था। उनके पट्टधर जिनचन्द्रसूरि हुए तत्पश्चात् नवांगी वृत्तिकार श्री अभयदेवसूरि हुए। उनके शिष्य सूरि शिरोमणी जिनवल्लभसूरि हुए। तदनन्तर युगप्रधान पदधारक जिनदत्तसूरि हुए। तत्पश्चात् परम्परा में श्रीजिनचन्द्रसूरि, श्रीजिनपतिसूरि, श्रीजिनेश्वरसूरि, श्रीजिनप्रबोधसूरि, श्रीजिनचन्द्रसूरि, श्रीजिनकुशलसूरि, श्रीजिनपद्मसूरि, श्रीजिनलब्धिसूरि, श्रीजिनचन्द्रसूरि, श्रीजिनोदयसूरि और जिनराजसूरि हुए। इनके पट्टधर पूर्णिमा चन्द्र के समान, सूर्य की किरणों को धारण करने वाले श्रीजिनभद्रसूरि है। उन्हीं के उपदेश से हरिराज ने स्वर्ण स्याही में यह कल्पसूत्र सन् 1509 में लिखवाया और इसकी प्रशस्ति मुनिसोमगणि ने लिखी है। . इस प्रशस्ति का महत्त्व इसीलिए भी बढ़ जाता है कि जैसलमेर में जिसको लक्ष्मणविहार कहा जाता है। जिसके दूसरे शिलालेख की प्रशस्ति उपाध्याय जयसागर ने लिखी है। तदनुसार रांका गोत्र में जोषदे और आसदेव की परम्परा में धांधल हुए। इस प्रशस्ति में इस परम्परा के प्रतिष्ठित महनीय सभी श्रेष्ठियों के नाम और उनके पुत्रों का उल्लेख है। ये नरसिंह मम्माणी कहलाते और उनके पुत्र जयसिंह के पुत्र भोज और हरिराज ने इस जेसलमेर तीर्थ पर लक्ष्मण विहार में संवत् 1473 में श्री जिनवर्द्धनसूरि के सान्निध्य में अपने परिवार सहित यह प्रतिष्ठा महोत्सव आयोजित किया था। (जैसलमेर का यह शिलालेख मेरे द्वारा सम्पादित प्रतिष्ठा लेख संग्रह, लेखांक 147, पृष्ठ 34 देखें।) इसी प्रकार इसी हरिराज द्वारा प्रतिष्ठित अन्य मूर्तियाँ भी प्राप्त हैं, जो निम्न हैं: लेख संग्रह 255