________________ श्री मुनिसोमगणिरचित कल्पसूत्र लेखन-प्रशस्ति श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समुदाय में कल्पसूत्र का अत्यधिक महत्व है। पर्वाधिराज पर्युषणा पर्व में नौ वाचनागर्भित कल्पसूत्र का पारायण किया जाता है और संवत्सरी के दिवस मूल पाठ (बारसा सूत्र) का वाचन किया जाता है। प्रत्येक भण्डारों में इसकी अनेकों प्रतियाँ प्राप्त होती हैं। अनेक ज्ञान भण्डारों में तो सोने की स्याही, चाँदी की स्याही और गंगा-जमुनी स्याही से लिखित सचित्र प्रतियाँ भी शताधिक प्रतियाँ प्राप्त होती हैं। केवल स्याही में लिखित प्रतियाँ तो हजारों की संख्या में प्राप्त हैं। पन्द्रहवी शती के धुरन्धर आचार्य श्री जिनभद्रसूरि को युगप्रधान के समक्ष स्वीकार किया जाए, . तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। समय की मांग को देखते हुए उन्होंने अनेक जिन मन्दिरों, हजारों जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठाएं की और साहित्य के संरक्षण की दृष्टि से खंभात, पाटण, मांडवगढ़, देवगिरि, जैसलमेर आदि भण्डार भी स्थापित किए। लेखन प्रशस्तियों से प्रमाणित है कि आचार्यश्री ने न केवल ताड़पत्र और कागज पर प्रतिलिपियाँ ही करवाई थी अपितु अपने मुनि-मण्डल के साथ बैठकर उनका संशोधन भी करते थे। जैसलमेर का ज्ञान भण्डार उनके कार्य-कलापों और अक्षुण्ण कीर्ति को रखने में सक्षम है। जहाँ अनेकों जैनाचार्य, अनेकों विद्वान् और अनेकों बाहर के विद्वानों ने आकर यहाँ के . भण्डार का उपयोग किया है। इन्हीं के सदुपदेश से विक्रम संवत् 1509 में रांका गोत्रीय श्रेष्ठी नरसिंह के पुत्र हरिराज ने स्वर्ण स्याही में (सचित्र) कल्पसूत्र का लेखन करवाया था। इसकी लेखन प्रशस्ति पण्डित मुनिसोमगणि ने लिखी थी। प्रशस्ति 36 पद्यों में है। इस प्रशस्ति में प्रति लिखाने वाले श्रावक का वंश वृक्ष और उपदेश देने वाले आचार्यों की पट्ट-परम्परा भी दी गई है। . श्री जिनदत्तसूरिजी ने उपकेशवंश में रांका गोत्र की स्थापना की थी। इसी कुल के पूर्व पुरुष जोषदेव हुए, जिन्होंने कि मदन के साथ सपादलक्ष देश और उकेशपुर (ओसियां) में सुकृत कार्य किए थे। उन्हीं की वंश परम्परा में श्रेष्ठी गजु हुए और उनके पुत्र गणदेव हुआ। गणदेव का पुत्र धांधल हुआ। जो की मम्मण कहलाता था और जिसने मुमुक्षु बनकर पद्मकीर्ति नाम धारण किया था। . श्रेष्ठी आंबा, जींदा और मूलराज ये चाचा के पुत्र थे और जिन्होंने जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करवाकर शासनोन्नति का कार्य किया था। उन्होंने ही फरमान प्राप्त करके संवत् 1436 में शत्रुजय आदि तीर्थों का श्री जिनराजसूरि के सान्निध्य में संघ निकाला था। इस संघ में 50,000 रूपये व्यय हुए थे। धांधल की भार्या का नाम श्री था। उसके दो पुत्र थे- जयसिंह और नृसिंह। श्रेष्ठी मोहन के दो पुत्र थे- कीहट और धन्यक। इन्होंने भी शत्रुजय का संघ निकालकर संघपति पद प्राप्त किया था। इन्होंने ने ही जेसलमेर में अपने बन्धुओं के साथ संवत् 1473 में जिनमंदिर और प्रचुर प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करवाई थी। जयसिंह के दो पत्नियाँ थी- सिरू (सरस्वती), ........ / सरस्वती के 254 लेख संग्रह