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________________ . 3 ; स्तोत्र के अनुकरण पर अनेक दिग्गज कवियों ने प्रचुर परिमाण में पादपूर्ति स्तोत्र और छाया स्तवन भी लिखें हैं जो निम्न हैं:१. नेमि भक्तामर स्तोत्र भावप्रभसूरि ऋषभ भक्तामर स्तोत्र समयसुन्दरोपाध्याय 3. शान्ति भक्तामर स्तोत्र लक्ष्मीविमल पार्श्व भक्तामर स्तोत्र विनयलाभ वीर भक्तामर स्तोत्र धर्मवर्धनोपाध्याय सरस्वती भक्तामर स्तोत्र धर्मसिंहसूरि भक्तामर प्राणप्रिय काव्य रत्नसिंह भक्तामर पाद पूर्ति पं. हीरालाल भक्तामर पादपूर्ति स्तोत्र महा० म० पं० गिरधर (इसके प्रत्येक चरण की पादपूर्ति की गई है) शर्मा भक्तामर स्तोत्र छाया स्तवन - मल्लिषेण 11. भक्तामर स्तोत्र छाया स्तवन - रत्नमुनि इस कृति के कर्ता विवेकचन्द्र ने श्री मानतुङ्गसूरिजी के भावों को सुरक्षित रखते हुए और उसको प्रगति देते हुए यह पादपूर्ति की है। इस पादपूर्ति स्तोत्र को देखते हुए कहा जा सकता है कि ये संस्कृत साहित्य के धुरन्धर विद्वान् थे और समस्यापूर्ति में भी भाग लेते थे। यह कृति रमणीय और पठनीय होने से यहाँ उद्धृत की जा रही है। इसकी एकमात्र कृति ही प्राप्त है, वह किस भण्डार में है, इसका ध्यान नहीं। अतएव इस सम्बन्ध में क्षमा चाहता हूँ। 10. . भक्तामरस्तोत्र-पादपूर्ति आदिनाथ-स्तोत्रम् नमेन्द्रचन्द्र ! कृतभद्र! जिनेन्द्र! चन्द्र! ज्ञानात्मदर्शपरिदृष्टविशिष्टविश्व।। त्वमूर्तिरर्तिहरणी तरणी मनोज्ञे बालंबनं भवजले पततां जनानाम् / / 1 / / ग्रह्णाति यज्जगती गारुडिको हि रन्नं, तन्मंत्र-तंत्रमहिमैव बुधो न शक्तः। स्तोतुं हि यं यद्बुधस्तदसीय शक्तिः, स्तोष्ये किलाहर्मापि तं प्रथमं जिनेन्द्रम्।। 2 / / त्वां संस्मरंतहमरंकरभीप्सितस्य, दूरं चिरं परिहरामि हरादिदेवान्। हित्वा मणिकरगतामुपलं हि विज्ञ-मन्य क इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम्।। 3 / / ध्यानानुकूलपवनं गुणराशिपात्रं, त्वामद्भुतं भुवि बिना जिन! यानपात्रम्। मिथ्यात्वमत्स्यभवनं भवरूपमेनं, को वा तरितुमलमंबुनिधिं भुजाभ्याम्।। 4 / / क्षुत्क्षाम-कुक्षि-तृषिता-तप-शीत-वात-दुःखीकृताद्भुततनोर्मरुदेविमाता। अद्याप्युवाच भरतादिभवाञ्जनस्य, नाभ्येति किं निजशिशोः परिपालनार्थम्।।५।। मुक्तिप्रदा भवति देव तवैव भक्तिर्नान्यस्य देवनिकरस्य कदाचनापि। युक्तं यतः सुरभिरेव न रौद्रमारास्तच्चारुचूतकलिकानिकरैकहेतुः।। 6 / / 348 लेख संग्रह
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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