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________________ भोपालगढ़ (बड़लू) के जैन मन्दिर ___ संयोगवश अखिल भारतीय जैन विद्वत् परिषद् के अधिवेशन में सम्मिलित होने के लिये मैं 20 अक्टूबर 1985 को भोपालगढ़ गया था। इस भोपालगढ़ का प्राचीन नाम बड़लू है और यह जोधपुर से लगभग 70 किलोमीटर दूर है। गाँव अच्छा सा कस्बा है और समृद्धिवान सेठों से परिपूर्ण भी है। यहाँ का हवा-पानी भी आरोग्यवर्धक है। लगभग साठ वर्ष पूर्व की टीपों के अनुसार यहाँ जैनों के 350 से भी अधिक घर थे। आज अधिकांशतः धनार्जन हेतु अन्य प्रदेशों में निवास करने लग गये हैं। वहाँ जो जैन निवास करते हैं, उनमें भी मूर्तिपूजक साधुओं का आवागमन न होने से अधिकांशतः स्थानकवासी या. तेरहपंथी बन गये हैं। मूर्तिपूजक जैनों के तो केवल तीन या चार घर ही हैं। फिर भी समाज में सौहार्दभाव बना हुआ है। इस छोटे से ग्राम में 4 जिन मंदिर और एक दादाबाड़ी है। परिचय निम्न है 1. पार्श्वनाथ मंदिर- यह मंदिर जाटावास में है। शिखरबद्ध है और विशाल भी है। मंदिर की दीवार पर दो-तीन स्थानों पर कुछ अक्षर लिखे हुए हैं। एक स्थल पर 'सं 1350' का स्पष्ट उल्लेख है। पार्श्वनाथ भगवान की मूर्ति परिचय सहित है, पर मूर्ति पर लेख उत्कीर्ण नहीं है। मूर्तिकला की दृष्टि से एवं वास्तु कला की दृष्टि से ये दोनों 700 वर्ष प्राचीन हैं, नि:संदेह है। मूल गर्भगृह के बाहर दादा साहब के चरण भी हैं। वि० सं० 2009 में सामान्य जीर्णोद्धार भी हुआ था। फिलहाल जीर्णोद्धार की आवश्यकता है। 2. शान्तिनाथ मंदिर- बाजार चौक में है। मंदिर क्या है? छोटी गढ़ी है। विशाल है, शिखरबद्ध है। यह लूणियों का मंदिर कहलाता है। यह मंदिर लगभग 150 वर्ष प्राचीन है। मूलनायक शान्तिनाथ प्रतिमा वि० सं० 1902 में, तपागच्छीय आचार्य विजय जिनेन्द्रसूरि द्वारा प्रतिष्ठित है। ___बड़लू के अन्य खण्डहर मंदिर से प्राप्त सुविधिनाथ भगवान की परिकर सहित खण्डित प्रतिमा अन्य कमरे में सुरक्षित है। इस मूर्ति की नाक का अग्रभाग घिस चुका है और गोडे के पास से तनिक खंडित भी है। मूर्ति पर लेख है // ऐं॥ संवत् 1556 वर्ष आषाढ़ वदि 2 दिने श्रेष्ठि कल्हड़ आढक प्रमुख 4 पुत्रैः ( ? मातृ) वर्जू स्वात्मश्रेयोर्थं श्री सुविधिनाथ बिंबं का० प्र० श्रीजिनसमुद्रसूरिभिः खरतरगच्छे। इस मंदिर के नीचे 4 दुकानें हैं, जिनमें से 3 दुकानों पर तेरहपंथी श्रावकों ने अपनी दुकानें कर रखी हैं और 10 वर्षों से किराया भी नहीं दे रहे हैं। 3. नेमिनाथ मंदिर- यह मंदिर नवनिर्मित उपाश्रय (स्थानक) के सामने ही है। कांकरियों का और खरतरगच्छ का कहलाता है। मूलनायक प्रतिमा सपरिकर है। किंतु ऐसा लगता है कि मूल प्रतिमा 332 लेख संग्रह
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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