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________________ स्तम्भ तीर्थ, इलादुर्ग, घोघाबन्दर, द्वीप, सिरोही, माण्डवगढ़, मेड़ता आदि अनेक स्थानों पर आचार्यश्री ने प्रतिष्ठा करवाई थी। इन्हीं के उपदेश से जाबालीपुर (जालोरदुर्ग) तीर्थ पर विशाल चैत्य का निर्माण, प्रतिष्ठादि हुए थे। इनके द्वारा प्रतिष्ठित लेख सहित शताधिक मूर्तियाँ आज भी प्राप्त हैं / विजयदेवसूरि के पट्टधर विजयसिंहसूरि हुए, जिनका जन्म 1644, दीक्षा 1654, वाचकपद 1672 और सूरिपद 1681 में प्राप्त हुआ था। स्वर्गवास 1709 में हो गया था। किसनगढ़ के दीवान श्री रायसिंहजी निर्मापित का चिन्तामणि पार्श्वनाथ मन्दिर आज भी इनका स्मरण करा रहा है। स्वपट्टधर आचार्य विजयसिंहसूरि का स्वर्गवास होने पर श्री विजयदेवसूरि ने उनके पट्ट पर विजयप्रभसूरि को बिठाया था। ___ सिद्धिविजय रचित विजयदेवसूरि भासद्वय का संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है: महीमण्डल के राजवी श्री विजयदेवसूरि यहाँ पधारे हैं। सब उनको नमस्कार कर रहे हैं / उनको वन्दन करने के लिए चलें। दूसरे पद्य में सोलह शृंगारों से सुशोभित महिलाएँ भाल पर तिलक कर, मोतियों का थाल लेकर उनके स्वागत के लिए चलीं। गुरु के सन्मुख कुमकुम, केसर, केवड़ा के साथ घोल बनाकर गुरु के सन्मुख रंगोली करती हैं / चौथे पद्य में सभी सोहागिनी सुन्दर स्त्रियाँ नवरंग वस्त्र धारण कर एक किनारे खड़ी होकर गुरुजी के गुणगान कर रही हैं। सिद्धिविजय कहता है कि विजयदेवसूरि का नाम निरन्तर गाने से शिवपद प्राप्त होता है। दूसरे भास में - सरस्वती को नमस्कार कर कवि गुरु विजयदेवसूरिन्द के गीत गाने की प्रतिज्ञा करता है, जिस प्रकार चन्द्र को देखकर चकोर हर्षित होता है उसी प्रकार आचार्य को देखकर आनन्दित होते हैं और उनके चरणों में गुरु वन्दन करते हैं। दूसरे पद्य में विजयदेवसूरि मुनियों में चन्द्रमा के समान हैं, और कुमतियों को समूल नष्ट करने वाले हैं। बाल्यावस्था में जिन्होंने संयम धारण किया और गुरु के पास में शुद्धाचार का पालन किया ऐसे आचार्य हमें भवसागर में डूबते हुए भवियों को तारणहार हैं। तीसरे पद्य में सुमति-गुप्ति रूपी रमणियों के साथ रमण करने वाले हैं, इन्द्रियों का दमन करने वाले हैं, मुनियों के ताज हैं। इनकी तुलना कौन कर सकता है? ये शिवपुर को प्रदान करने वाले हैं। जिनकी दन्त पंक्ति सोने की मेख से जटित है। उनको देखकर मन उल्लसित होता है, ऐसे गुरु मुझे मिले हैं, भव समुद्र के फेरे से बचाने वाले हैं, सिद्धिविजय कहता है कि ये मेरे गुरु जब तक पृथ्वी है तब तक इनकी यशोकीर्ति बढ़ती रहे। (1) श्री विजयदेवसूरि भासद्वय सहगुरु आव्या मई सुण्या रे चाली सखी एक वार / महीमण्डल नउ राजीउ रे प्रणमइं सुर नर नारि रे॥ बहिनी वन्दीजइं गुरुराज॥ 1 // जिम सीझइ सघला काज रे बहिनी वन्दीजइं गुरुराज। सोल शृंगार सोहावती रे लावती मोतिनउ थाल। भाल तिलक रलियामणो रे भामणउ भगती रसाल रे॥ ब. 2 // कुंकुंम केसर केरडउ रे कीजउ बहुल उद्योत। चोल तणी परि रातड़उ रे गुर आगई रंगरोल रे / / ब. 3 // 242 लेख संग्रह
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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