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________________ श्री सिद्धिविजय रचित श्री विजयदेवसूरि भासद्वय श्री विजयदेवसूरि भासद्वय के प्रणेता श्री सिद्धिविजय महोपाध्याय श्री मेघविजय के प्रगुरु (दादागुरु) थे और जगद्गुरु श्री हीरविजयसूरिजी के प्रशिष्य थे। गुरु का नाम शीलविजय था। सिद्धिविजयजी का समय १७वीं शताब्दी का अन्तिम चरण या १८वीं शताब्दी का प्रथम चरण माना जा सकता है। इनके द्वारा प्रणीत अन्य कृतियाँ अन्य भण्डारों में अवश्य ही प्राप्त होंगी, किन्तु मुझे अभी तक चार लघुकृतियाँ ही प्राप्त हुई हैं:- 1-2. नेमिनाथ भास और 3-4. श्री विजयदेवसूरि भास। इसका स्फुट पत्र प्राप्त है, जिसमें चारों ही कृतियाँ एक साथ ही लिखी गई हैं। इस पत्र की माप 24.3410.4 से.मी. है, पत्र 1 है, दोनों भासों की कुल पंक्ति 15 तथा प्रति अक्षर 42 हैं। लेखन समय सम्भवतः १७वीं सदी का अन्तिम चरण है। - शासन प्रभावक विजयदेवसूरि प्रसिद्धतम आचार्य हुए हैं। ये जगद्गुरु श्री हीरविजयसूरि के प्रशिष्य तथा श्रीविजयसेनसूरि के पट्टधर थे। विक्रम संवत् 1634 इलादुर्ग में जन्म, संवत् 1643 राजनगर में श्री हीरविजयसूरि के कस्कमलों से माता के साथ दीक्षा, 1655 सिकन्दरपुर में पन्यास पद, 1656 स्तम्भतीर्थ में उपाध्याय पद और सूरिपद प्राप्त हुआ एवं श्री विजयसेनसूरि के स्वर्गवास के पश्चात् संवत् 1671 में भट्टारक पद प्राप्त किया। संवत् 1671 में इनका स्वर्गवास हुआ। ___ जगद्गुरु श्री हीरविजयसूरि के पश्चात् विजयदेवसूरि की दिग्गज् आचार्यों में गणना की जाती है। विजयदेवसूरि रचित कोई साहित्य प्राप्त हो ऐसा ज्ञात नहीं है, किन्तु इनसे सम्बन्धित खरतरगच्छीय श्रीवल्लभोपाध्याय रचित (र.सं. 1687 के आस-पास) विजयदेव माहात्म्य और श्री मेघविजयजी रचित ''श्रीतपगच्छपट्टावलीसूत्रवृत्यनुसंधानम् के अनुसार इनका संक्षिप्त जीवन चरित्र प्राप्त होता है। सम्राट अकबर के सम्पर्क में ये आए हों ऐसा कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता है, किन्तु सम्राट जहांगीर के समय में इनका प्रभाव अत्यधिक बढ़ा था। जहांगीर इनको बहुत सम्मान देता था और गुरु के रूप में स्वीकार करता था। यही कारण है कि संवत् 1687 माण्डवगढ़ में श्री जहांगीर ने इनको महातपाविरुद प्रदान किया था। किन्तु, खटकने वाली बात यह है कि इन्हीं के कार्यकाल में विजयदेवसूरि एवं विजयआनन्दसूरि शाखाभेद हुआ। श्रीदर्शनविजयजी ने विजयतिलकसूरि रास में जिस अशालीन घटना का वर्णन किया है, वह विचारणीय अवश्य है। खरतरगच्छीय श्री ज्ञानविमलोपाध्याय के शिष्य श्रीश्रीवल्लभोपाध्याय ने तो इनका संकेत मात्र ही किया है और सम्भवतः इनकी यशोकीर्ति से प्रभावित होकर श्री वल्लभोपाध्याय ने विजयदेव माहात्म्य रचा था। संवत् 1687 के पश्चात् किसी घटना का उल्लेख नहीं है। इसी वर्ष इस माहात्म्य को पूर्ण कर दिया। लेख संग्रह 241
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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