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________________ द्वारा चित्तौड़ नष्ट ( विक्रम संवत् 1360) करने के पूर्व का होना चाहिए। श्लोक 14 में 'दुर्गे श्रीचित्रकूटे वनविपिनझरन्निझराद्युच्चशाले, कीर्तिस्तम्भाम्बु-कुण्डद्रुमसरलसरो निम्नगा सेतुरम्ये' लिखा . है। इसमें कीर्तिस्तम्भ का उल्लेख होने से महाराणा कुम्भकर्ण द्वारा निर्मापित कीर्तिस्तम्भ न समझकर जैन कीर्तिस्तम्भ ग्रहण करना चाहिए जो कि १३-१४वीं शती का है। महाराणा कुम्भकर्ण का राज्यकाल विक्रम संवत् 1490 से लेकर 1525 तक का है। इसमें ईडर को भी मेवाड़ राज्य के अन्तर्गत लिखा है ईडर पर अधिकार १३-१४वीं शताब्दी में ही हुआ था। दूसरी बात इन स्थानों पर विशाल-विशाल ध्वजकलश मंडित और शिखरबद्ध अनेकों जिन मन्दिरों का उल्लेख यह स्पष्ट ध्वनित करता है कि यह रचना चित्तौड़ ध्वंस के पूर्व की है। अत: मेरा मानना यह है कि इस कृति की रचना १४वीं शताब्दी के प्रारंभ में ही हुई है। हरिकलश यति संस्कृत साहित्य, छन्दःसाहित्य और चित्रकाव्यों का प्रौढ़ विद्वान था। व्याकरण पर भी इसका पूर्णाधिपत्य दृष्टिगत होता है। इस स्तव में इनके प्रौढ़ पाण्डित्य के साथ लालित्य, माधुर्य और प्रसाद गुण भी प्राप्त हैं। नामकरण एवं तीर्थपरिचय - मेदपाट अर्थात् मेवाड़ देश के तीर्थस्वरूप जिन-मन्दिरों की यात्रा एवं वन्दना होने से इस स्तव का नाम भी मेटपाट देश तीर्थमाला रखा गया है। इस तीर्थमाला का परिचय इस प्रकार है:१. कवि ने प्रथम पद्य में चौवीस तीर्थङ्करों को नमस्कार कर देखे हुए तीर्थों की तीर्थमाला में वन्दना की 2. इसमें 'वामेय' शब्द स्वस्तिक चित्र गर्भित पार्श्वनाथ की स्तुति की है। इसमें नागहृद (वर्तमान में नागदा) स्थित नवखण्डा पार्श्वनाथ के मन्दिर का वर्णन किया है। साथ ही कवि नागहृद में 11 जैन मन्दिरों का उल्लेख भी करता है जिनमें शान्तिनाथ और महावीर आदि के मन्दिर मुख्य हैं। जिनमन्दिर में वाग्देवी अर्थात् सरस्वती देवी की मूर्ति का भी कवि उल्लेख करता है। इसमें देवकुलपाटक (वर्तमान में देलवाड़ा) में हेमदण्डकलशयुक्त चौवीस (चौवीस देवकुलिकाओं से युक्त) तीन मंदिरों का वर्णन करता है, जिसमें श्री महावीर, ऋषभदेव और शान्तिनाथ के मंदिर हैं। यहाँ कवि कहता है कि भगवान शान्तिनाथ गुरुधर्मसूरि द्वारा भी वंदित हैं अर्थात् उनके द्वारा प्रतिष्ठित हैं। इसमें आघाटपुर (वर्तमान में आहाड़) जल कुण्डों से सुशोभित है; विद्या विलास का स्थान है और जो माकन्द, प्रियाल, चम्पक, जपा और पाटला के पुष्पों से संकुलित है। वहाँ 10 जिनमन्दिर हैं। जिनमें पार्श्वनाथ, आदिदेव, महावीर के मुख्य हैं। 6. इसमें प्रारम्भ के दो अक्षर पढ़ने में नहीं आ रहे हैं। सम्भवतः ईशपल्लीपुर (वर्तमान में ईसवाल) में विद्यमान विक्रम संवत् 300 की अत्यन्त पुरातन श्री आदिनाथ प्रतिमा को निरन्तर नमस्कार करता है। 7. इसमें मज्जापद्र (मजावड़ा) विषम पर्वतों से घिरा हुआ है। यहाँ 52 जिनालय से मण्डित प्रशस्त चैत्य है। मूलनायक श्री पार्श्वनाथ भगवान हैं। और खागहड़ी में अनेक बिम्बों से युक्त शान्तिनाथ भगवान को नमस्कार करता है। 284 लेख संग्रह
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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