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________________ श्री देवभद्रसूरि रचित चतुर्विंशति - जिन - स्तोत्राणि वाणी/वाचा की सफलता और हृदय की अनुभूति का उद्रेक ही स्तोत्रों का प्रमुख विषय रहा है। जिनेश्वरों के पाँच कल्याणकों के अतिरिक्त उनसे सम्बन्धित जितनी भी वस्तुएँ स्थान हैं, उनके माध्यम/ वर्णन से कृतकृत्य होना ही जीवन की सफलता का आधार है। प्रस्तुत स्तोत्रों में उनके गुणगौरव यशोकीर्ति का उल्लेख कम है, उनके वर्णनो/स्थानों का उल्लेख अधिक है। इस कृति की दुर्लभ प्रति श्री लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर, मुनिराजश्री पुण्यविजयजी के संग्रह में उपलब्ध है। सूचीपत्र भाग-१, क्रमाङ्क 1378, परिग्रहणाङ्क नम्बर 7254 (1) पर सुरक्षित है। पत्र संख्या 5 है। साईज 30x11-4, पंक्ति 20 और अक्षर संख्या 58 है। लेखनकाल संवत् 1550 है। इस स्तोत्र का प्रारम्भ - सिरि अजियनाह वइसाह - से प्रारम्भ होता है। गाथा संख्या 192 है। प्रणेता प्रथम ऋषभदेव स्तोत्र गाथा 8 में देवभद्दाइं और वर्द्धमान स्तोत्र गाथा 8 में देवभद्दाइं शब्द का रचनाकार ने प्रयोग किया है। इससे स्पष्ट है कि इस कृति के प्रणेता देवभद्रसूरि हैं। इसमें कहीं भी अपनी गुरु-परम्परा और गच्छ का उल्लेख नहीं किया है। लिखित प्रति 1550 की होने के कारण इससे पूर्व ही देवभद्रसूरि के सम्बन्ध में विचार आवश्यक है। 1. देवभद्रसूरि - नवाङ्गीटीकाकार श्री अभयदेवसूरि के विनेय शिष्य हैं। इनका दीक्षा नाम गुणचन्द्रगणि था और आचार्य बनने के पश्चात् देवभद्रसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए। इनके द्वारा प्रणीत वीर चरित्र, कहारयण कोष (रचना सं. 1158) और पार्श्वनाथ चरित्र (रचना सं. 1165) के प्राप्त हैं। 2. देवभद्रसूरि - चन्द्रगच्छ, बृहद्गच्छ, पिप्पलक शाखा के प्रवर्तक हैं, जो विजयसिंहसूरि, देवभद्रसूरि, धनेश्वरसूरि की परम्परा में हैं। इनका समय १२वीं शताब्दी है। _____3. देवभद्रसूरि - चन्द्रगच्छीय, शान्तिसूरि, देवभद्रसूरि, देवानन्दसूरि की परम्परा में हैं / सत्ताकाल १३वीं शती है। 4. देवभद्रसूरि - मलधार-गच्छीय श्रीचन्द्रसूरि के शिष्य हैं / और संग्रहणी वृत्ति इनकी प्रमुख रचना है। समय १२वीं शताब्दी। 5. देवभद्रसूरि - पूर्णिमापक्षीय विमलगणि के शिष्य हैं / दर्शनशुद्धि-प्रकरण की टीका प्राप्त है जिसका रचना संवत् 1224 है। 6. देवभद्रसूरि - राजगच्छीय अजितसिंहसूरि के शिष्य है। इनकी प्रमुख रचना श्रेयांसनाथ चरित्र है और इनका सत्ताकाल 1278 से 1298 है। साहित्य में इन छ: देवभद्रसूरि का ही उल्लेख प्राप्त होता है। क्रमांक 2 और 3 की कोई रचनाएँ प्राप्त नहीं हैं। क्रमांक 4-5 जैन प्रकरण साहित्य के टीकाकार हैं और क्रमांक 6 कथाकार हैं / क्रमांक 2194 लेख संग्रह
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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