SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 159
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकार्थीकोश आदि के दुर्धर्ष विद्वान् थे। इन विषयों के विद्वान होते हुए भी ये वर्षा-विज्ञान, हस्तरेखाविज्ञान, फलित-ज्योतिष-विज्ञान और मंत्र-तंत्र यंत्र साहित्य के भी असाधारण विद्वान् थे। कवि ने इस ग्रंथ में रचना सम्वत् और रचना स्थान का उल्लेख नहीं किया है। हाँ, रचना प्रशस्ति पद्य 3 में आचार्य विजयप्रभसूरि के पट्टधर आचार्य विजयरत्नसूरि का नामोल्लेख किया। "पट्टावली समुच्चय भाग 1" पृष्ठ 162 और 176 में इनका आचार्यकाल 1732 से 1773 माना है, जबकि डॉ० शिवप्रसाद ने "तपागच्छ का इतिहास" में इनका आचार्यकाल 1749 से 1774 माना है। इस ग्रन्थ में अधिकांशतः सम्वत् 1745 वर्ष की ही प्रश्न-कुण्डलिकाएँ हैं, इसके पश्चात् की नहीं हैं, अतः इसका निर्माणकाल 1745 के आस-पास ही मानना समीचीन होगा। छठा अधिकार राजा भीम की प्रश्न-कुण्डली से संबंधित है। पूर्ववर्ती और परवर्ती अनेक भीमसिंह हुए हैं। सीसोदिया राणा भीमसिंह, महाराणा अमरसिंह का पुत्र भीमसिंह, महाराणा राजसिंह का पुत्र भीमसिंह, महाराणा भीमसिंह और जोधपुर के महाराजा, कोटा के महाराजा, बागोर के महाराज, सलुम्बर के महाराणा भी हुए है। महामहोपाध्याय रायबहादुर गौरीशंकर हीराचन्द ओझा द्वारा लिखित "उदयुपर राज्य का इतिहास" के अनुसार महाराणा राजसिंह का पुत्र भीमसिंह ही इनका समकालीन हैं। महाराणा राजसिंह का देहावसान विक्रम सम्वत् 1737 में हुआ था और उनके गद्दीनसीन महाराणा जयसिंह हुए थे। भीमसिंह चौथे नं० के पुत्र थे, अत: महाराणा की पदवी इनको प्राप्त न होकर जयसिंह को प्राप्त हुई थी। ये भीमसिंह बड़े वीर थे। विक्रम सं० 1737 में इन्होंने युद्ध में भी भाग लिया था। सम्भव है ये भीमसिंह समकालीन होने के कारण मेघविजयजी के भक्त, उपासक हों और 1745 में कुण्डलिका के आधार से इनका भविष्यफल भी कहा हो। ___ अधिकार 4,5,8,9,10, 11 में क्रमशः उत्तमचन्द्र, मंत्री राजमल्ल, सोम श्रेष्ठि जयमल्ल, मूलराज, छत्रसिंह के नाम से भी प्रश्नकुण्डली बना कर फलादेश दिये गये हैं। ये लोग कहाँ के थे? इस सम्बन्ध में कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती हैं। महोपाध्यायजी का जनसम्पर्क अत्यन्त विशाल था। इसलिए यह नाम कल्पित तो नहीं है। सम्भवतः उनके विशिष्ट भक्त उपासक हों, अतः ये सारे नाम अन्वेषणीय हैं। अधिकार ७वाँ महोपाध्याय मेघविजयजी से संबंधित है। इसके मंगलाचरण में महोपाध्याय पद प्राप्ति के उल्लेख पर टिप्पणीकार ने लिखा है - "हे श्रीशंखेश्वरपार्श्व! श्रिया कान्त्या महान् यः उपाधिर्धर्मचिन्तनरूपस्तत्र अभिषिक्त: व्यापारितो मेघो येन तत् सम्बोधनं हे प्रभो ! तव भास्वदुदयज्योतिभरैर्मया प्रकाशे प्राप्ते विजयस्य अधिकारो वक्तव्यः" इसके साथ विक्रम सम्वत् 1731, भादवा सुदि तीज की प्रश्नकुण्डली पर विचार किया है, अत: यह स्पष्ट है कि मेघविजयजी को विक्रम सम्वत् 1731 या उसके पूर्व ही महोपाध्याय पद प्राप्त हो चुका था। इस ग्रन्थ में हस्तसंजीवन और उसकी टीका, ज्ञानसमुद्र और केशवीय ज्योतिष ग्रन्थों आदि के उल्लेख भी प्राप्त होते हैं। श्री मेघविजयजी जगन्मान्य वासुदेव श्रीकृष्ण द्वारा अधिष्ठापित, पूजित और वंदित भगवान् शंखेश्वरपार्श्वनाथ के अनन्य भक्त हैं और उन्हीं के कृपा-प्रसाद के समस्त प्रकार के धर्मों का लाभ प्राप्त होता है। __ प्रश्नकुण्डलिकाओं पर आधारित यह धर्मलाभशास्त्र ग्रन्थ अभी तक अप्राप्त रहा है। फलित-ज्ञान और ज्योतिर्विज्ञान की दृष्टि से यह ग्रन्थ अध्ययन योग्य है, अत्यंत उपयोगी है और प्रकाशन-योग्य है। 148 लेख संग्रह . .
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy