________________ विश्व का अद्भुत संग्रहालय : जैसलमेर का जिनभद्रसूरि ज्ञान भण्डार विधर्मी आक्रान्ता शासकों ने धर्मान्धता के आवेश में जैन तीर्थों, मन्दिरों, मूर्तियों को तोड़-फोड़ कर उन्हें तहस-नहस कर डाला और जैन भण्डारों को जला-जला कर नष्ट कर डाला, तब तत्कालीन कुछ जैनाचार्यों ने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार उन शासकों के सम्पर्क में आकर उनके धार्मिक जुनून को कम करने का प्रयत्न किया। इस प्रयास में वे यत्किचित् सफल भी हुए। कुछ जैनाचार्यों ने 'जीर्णोद्धार करावतां आठ गुणों फल होय' की स्थापना कर जन-मानस को आन्दोलित करने हुए प्रबल वेग के साथ ध्वस्त मन्दिरों का जीर्णोद्धार, नये-नये भव्य एवं विशाल शिखरबद्ध मन्दिरों का विपुल संख्या में निर्माण और सहस्राधिक मूर्तियों की एक समय प्रतिष्ठा करवाकर भक्ति की ओर झुकने लगे और प्राचीन - ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ करवा-करवा कर भंडारों को समृद्ध करने लगे। __ श्वेताम्बर समाज के सैकड़ों आचार्यों, गच्छनायकों ने स्वकीय रुचि एवं शक्ति के अनुसार इस पुनीत कार्य में सक्रिय योगदान किया। तथापि १५वीं शताब्दी के 3 जैनाचार्यों का इस कार्य में प्रबल एवं विशिष्ट योगदान रहा। वे तीन आचार्य हैं - खरतरगच्छ के जिनभद्रसूरि, तपागच्छ के सोमसुन्दरसूरि और अंचलगच्छ के जयकेसरिसूरि। इन तीनों में भी सोमसुन्दरसूरि और जययकेसरिसूरि ने मन्दिर एवं मूर्ति निर्माण के एक क्षेत्र में ही वेग के साथ-साथ हाथ बढ़ाया, जबकि जिनभद्रसूरि ने मन्दिर एवं मूर्ति-निर्माण/ प्रतिष्ठा के साथ-साथ प्रबल वेग से अनेक स्थानों पर समृद्ध भंडारों की स्थापना करते हुए शास्त्र-संरक्षण के कार्य को प्रमुख प्रधानता प्रदान की। जिनभद्रसूरि की मान्यता थी/उपदेश था - पहले ज्ञान है और बाद में दया। ज्ञान के बिना क्रिया भी सफल नहीं होती है। वह ज्ञान शास्त्रों से प्राप्त होता है और वे शास्त्र वर्तमान समय में पुस्तकों के आधार पर आश्रित हैं तथा वह पुस्तक लेखन/शास्त्रों की प्रतिलिपियाँ करवा कर * सद्गुरुओं को अध्ययनार्थ प्रदान करने से प्राप्त होता है। ज्ञान समस्त सुखों का दाता है, तत्त्व ज्ञान सद्गुरुओं के अधिगम उपदेश से प्राप्त होता है। तत्व ज्ञान से शम की प्राप्ति होती है। शम की प्राप्ति से मानव वैर रहित हो जाता है। फलतः वह शत्रु रहित और द्वेषरहित हो जाता है, निर्भय हो जाता है, अतः हे भव्यजनो! आप आदरपूर्वक श्रुतज्ञान/शास्त्रों को लिखवाओ अर्थात् प्रतिलिपियाँ करवा-करवा कर श्रुत भंडार को समृद्ध करो - प्राग् ज्ञानं तदनन्तरं किल दया वागार्हतीति स्फुटा, न ज्ञानेन बिना क्रियापि सफला प्रायो यतो दृश्यते। / तत्स्यात् सम्प्रति पाठतः स च पुनः स्यात्पुस्तकाधारतस्तस्मात्पुस्तकलेखनेन मुनिषु ज्ञानं प्रदत्तं भवेत्॥१८॥ ज्ञानं सर्वसुखप्रदं च ददता साधुव्रजायाभवं, दत्तं येन ततो भवेदधिगमस्तत्त्वस्य तत्त्वाच्छमः। लेख संग्रह