________________ सूत्रधार बाहुक / तस्य समुत्पन्नो भद्रादित्य। तत्र जातो मचारवि। तस्य पुत्रोत्पन्न सिसुरवि सूत्रधार। अण्डज स्वेदजौ वापि उद्भिजं च ज (र)। युजं। ___ इस लेख से स्पष्ट है कि फवर्द्धिका देवी का मन्दिर ९वीं शती में विद्यमान था और जिनप्रभसूरि के कथनानुसार १४वीं शताब्दी में भी इसी नाम से पुकारा जाता था। कालान्तर में यही ब्रह्माणी माता के नाम से प्रसिद्ध हुआ है। समयान्तर से इस मन्दिर का कई बार जीर्णोद्धार हुआ होगा किन्तु, ऐतिह्य एवं पुष्ट उल्लेख आज प्राप्त नहीं है। इस मंदिर के संबंध में स्वर्गीय रायबहादुर श्री गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने जोधपुर राज्य का इतिहास, प्रथम खंड, पृ० 37 में जो इतिहास दिया है वह इस प्रकार है: ब्रह्माणी का मन्दिर गाँव के पूर्व में है और ग्यारहवीं शताब्दी के आस-पास का बना जान पड़ता है। सभा मण्डप का बाहरी भाग तथा शिखर नया है, परन्तु भीतर के स्तम्भ एवं बाहरी दीवारें बहुधा पुरानी हैं। नये बने हुए तीनों हाथों में से एक नृसिंह और दूसरे वराह की मूर्ति है। तीसरे में एक आठ हाथों वाली मूर्ति है जिसके छः हाथ अब नष्ट हो गये हैं, जो संभवतः फलवर्द्धिका देवी की हो। वर्तमान ब्रह्माणी की मूर्ति नवीन है। मन्दिर के स्तम्भों पर कई लेख हैं। सबसे प्राचीन लेख में संवत् नहीं है और फलवर्द्धिका देवी : का उल्लेख है। दूसरा वि. सं. 1465 भाद्रपद सुदि 5 (ई. सं. 1408 ता. 26 अगस्त) का लेख किसी तुगलक वंश के सुल्तान के समय का है, जिसमें फलौदी के मंदिर के जीर्णोद्धार किये जाने का उल्लेख है। तीसरा लेख वि. सं. 1535 (चैत्रादि 1546) चैत्र सुदि 15 (ई. सं. 1479 ता. 6 अप्रेल) का मारवाड़ी भाषा में है, जिसमें मंदिर के जीर्णोद्धार किये जाने का उल्लेख है। मेरे संग्रह में १९वीं शताब्दी में लिखित एक पत्र पर शिलापट्ट-प्रशस्ति की प्रतिलिपि विद्यमान है। यह शिलालेख शोध करने पर भी प्राप्त नहीं हुआ है किन्तु फलौदी माता के मंदिर के सम्बन्ध में एक तथ्यपूर्ण, ऐतिह्य और विवेच्य प्रकाश डालता है अतः इस प्रतिलिपि की नकल अविकल रूप में उद्धृत की जा रही है: ॐ नमः। श्री शारदायै नमः। अभूत् प्रभुः श्री परमारवंशे, बभूव ( ? प्रख्यात) भूपो मधु देवनामा। भूभामिनीभालललाम तुल्यः, प्रत्यर्थिदावानलवारिपूरः॥ 1 // सर्वत्राऽपि समस्तनीतिरियती पाथोभिरत्युल्वणो ज्वालाजालजटालदीप्तहुतभुग्शान्ति सदा वाप्नुयात्। चित्रं श्रीमधुदेवदेवनृपते युष्मत्प्रतापानल:, शत्रूणां वनिताश्रुवारिनिवहै: सिक्तोऽपि संवर्द्धते // 2 // 300 लेख संग्रह