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________________ मन्दिर, अहमदाबाद; मुनि पुण्यविजयजी संग्रह, क्रमांक 4834, परिग्रहनांक 2633, पत्र 62, लेखनकाल 1750, दस सान्त, और 3, मेरे निजी संग्रह में। मेरे संग्रह की प्रति खण्डित एवं अपूर्ण है, और लिपिकाल १८वीं शती है। जोधपुर और मेरे संग्रह की प्रतियों में टीकाकार की रचना प्रशस्ति प्राप्त नहीं है, जिससे कि रचना-सम्वत् का निर्धारण किया जा सके। उक्त तीनों प्रतियों में सर्गान्त पुष्पिका मात्र प्राप्त है। सर्गान्त पुष्पिकाओं में कई स्थलों पर वाचनाचार्य ललितकीर्ति के स्थान पर भरोपाध्याय ललितकीर्ति का प्रयोग भी प्राप्त होता है। पुष्पिका में श्री खरतरगच्छे वरेण्याचार्य श्री कीर्तिरत्नसूरि' का स्पष्टतः उल्लेख है। कीर्तिरत्नसूरि का समय 1449 से 1525 तक का है। इनका जन्म 1449 में हुआ था। ये संखवालेचा गोत्रीय सा. देएमल्ल के पुत्र थे। इन्होंने 1463 आषाढ़ बदी 11 खरतरगच्छाचार्य श्री जिनराजसूरि (प्रथम) के पट्टधर जिनवर्धनसूरि के पास दीक्षा ग्रहण की थी। दीक्षा नाम कीर्तिराज था। जिनवर्धनसूरि ने ही इन्हें 1470 में वाचक पद और श्री जिनभद्रसूरि ने 1480 वैशाख शुक्ला 10 गहेवा में उपाध्याय पद तक 1487 माघ शुक्ला 10 को जैसलमेर में आचार्य पद प्रदान किया था। आचार्य पद के समय इनका नाम कीर्तिरत्नसूरि रखा गया। इन्होंने 1465 में नेमिनाथ महाकाव्य की रचना की, जो डॉ. सत्यव्रत अनूदित और सम्पादिक होकर बीकानेर से प्रकाशित हो चुका है। 1512 में राजस्थान में सर्वाधिक प्रसिद्ध तीर्थ नाकोड़ा पार्श्वनाथ प्रतिमा पुनर्स्थापना कर प्रतिष्ठापित की। 1525 वैशाख बदी 5 को वीरमपुर (वर्तमान मेवानगर नाकोड़ा) में इनका स्वर्गवास हुआ। वहीं इनका स्तूप बनवाया गया, जो आज भी नाकोड़ा में टेकरी पर विद्यमान है। 1525 में प्रतिष्ठित इनकी मूर्ति भी नाकोड़ा पार्श्वनाथ मन्दिर के मूल गर्भगृह के बाहर विराजमान है। इन्हीं के नाम से खरतरगच्छ की परम्परा में कीर्त्तिरत्नसूरि के नाम से उपाध्याय पद धारियों की एक प्रशाखा चली। इस परम्परा में श्री जिनकृपाचन्द्रसूरिजी (स्वर्गवास वि. सं. 1992) जैसे प्रसिद्ध आचार्य हुए है। इन्हीं कीर्तिरत्नसरि की परम्परा में ललितकीर्ति हए हैं। इनके सम्बन्ध में भी अन्तः साक्ष्य प्राप्त हैं। इस माघकाव्य टीका के अतिरिक्त अन्य दो कृतियाँ और प्राप्त हैं : 1. शीलोपदेशमाला-दीपिका : र. सं. 1678 लाट दुह 2. अगड़दत्त रास - 1679, भुजनगर शीलोपदेश माला दीपिका में ललितकीर्ति ने 17 पद्यों में रचना-प्रशस्ति प्रदान की है। पद्यांक 1 से 10 में खरतरगच्छ के आचार्यों की परम्परा दी है और प्रशस्ति पद्य 11 से 17 में स्वगुरु परम्परा और रचनाकाल स्थान का उल्लेख किया है। पूर्ण प्रशस्ति इस प्रकार है:- . 'प्रचुर चतुर चञ्चच्चातुरी नीर पूर्णः, सकलसमयपारम्पर्यरत्नादियुक्तः।। निरवधिगुणसङ्घस्फूर्जदूर्मिप्रवाहः, खरतरगण वार्द्धिवृद्धितां यातु नित्यम्॥१॥ तत्राऽभूत् कलिकालगौतमनिभः सूरीश्वरोद्योतन-स्तत्पट्टे सकलेन्दुनिर्मलगुणः श्रीवर्द्धमानो पुनः।। येन प्राप्यणहिल्पत्तनपुरे श्रीदुर्लभस्याग्रतः, प्रोघत्कीर्तिभरा बृहत्खरतरेत्याख्या क्षितौ विश्रुताः॥२॥ योऽस्तु [ 1 स्व ]स्तिकूले सतां ततमति जैनेश्वरो गच्छराट्, सद्गच्छार्णवनीरवर्धनविधौ चन्द्रोपमस्तत्पदे। श्रीमच्छ्रीजिनचन्द्रसुगुरुर्जातः प्रभूतक्षमः, श्रीभव्याम्बुजबोधपुष्करमणि: ख्यातः क्षितौ कीर्तिभिः॥३॥ जीवाजीवविघारचारि मधुरैर्वृत्तिर्नवाझ्यायकै-चक्रे स्तम्भनके पुनः प्रकटित; पार्श्वश्च यैः स्थापितः। . 164 लेख संग्रह
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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