SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 74
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रयं को माघः थ्रयंकः किरातकाव्यं महागभीरार्थम्। ज्ञेयानि च पञ्च महाकाव्यान्यैतानि लौकिकान्यत्र // 2 // कल्याणमन्दिराख्यः श्रीमान्भक्तामरः स्तबकः। जचईनवनलिनकुवलयमहिमागारस्य जिनपतेः स्तबकः॥ 3 // श्री वामेयञ्च प्रभुं जीरिकया संयुतं परं स्तवनम्। श्रीमत्सकलसुखाख्यं त्रिपुरास्तोत्रं लघुस्तवकम्॥ 4 // केदार-रचितं छन्दो वृत्तरत्नाकराभिधम्। . अलंकारः कविश्लाघ्यः श्रीवाग्भटकविकृतेः॥५॥ श्रीधर्मदासरचिता विदग्धमुखमण्डनः। आद्याः श्रीयोगशास्त्रस्य चत्वारोऽध्यायकवराः। श्रीवीतरागदेवस्य स्तवनानि च विंशतिः॥६॥ श्रीमदञ्चलगच्छाख्ये जयशेखरसूरयः। बभूबुर्भूपरिश्रेणीवन्दितांधियुगाः सदा॥७॥ शिष्याश्च तेषां वसुधेशदत्त-मानाः परेषामुपकारदक्षाः। श्रीवाचनाचार्यपदप्रपन्नाः श्रीमेरुचन्द्रप्रवरा जयन्ति॥ 8 // अतिविकट यवनभूपति कारागेहस्थसंस्थिता यतयः। बरुद्धृता जयन्तु प्रसमं श्रीमेरुचन्द्राख्याः॥९॥ श्रीमतां मेरुचन्द्राणामादेशात् वाडवेन च। पूर्वोक्त-ग्रन्थ सङ्घानामवचूरिः कृतापरा // 10 // विराटनगरस्थेन मन्त्रिपञ्चाननेन च। श्रीमन्माणिक्यसुन्दर-सूरिभिः शोधिता दृढम्॥११॥ सारांश अंचलगच्छ में अनेक भूपतियों से वन्दित श्री जयशेखरसूरि हुए। उनके शिष्य वाचनाचार्य मेरुचन्द्र विद्यमान हैं, जिनको राजाओं ने मान दिया है, जो उपकार करने में दक्ष हैं और जिन्होंने भयंकर यवनराजा के कारागार में रहे गए यतियों का उद्धार किया है, जेल से छुड़ाया है। ऐसे श्री मेरुचन्द्र वाचनाचार्य के आदेश से वाडव ने (मैंने) पूर्वोक्त 17 ग्रन्थों पर अवचूरि (लघुटीका) की रचना की है। इन अवचूरियों का संशोधन विराटनगर निवासी मन्त्री पंचानन और श्री माणिक्यसुन्दरसूरि ने किया है। इस प्रशस्ति से कई नवीन तथ्य प्रकाश में आते हैं जिन पर विचार किया जाना आवश्यक है। (1) पार्श्वलिखित अंचलगच्छीय दिग्दर्शन के अनुसार जयशेखरसूरि का समय लगभग 1400 से 1462 का है। ये महेन्द्रप्रभसूरि के द्वितीय शिष्य हैं / महेन्द्रप्रभसूरि के पाट पर मेरुतुंगसूरि बैठे। इसलिये मुख्य पट्ट-परम्परा में जयशेखरसूरि नहीं आते। यही कारण है कि जयशेखरसूरि शिष्य वाचनाचार्य मेरुचन्द्र का इस इतिहास मे नामोल्लेख भी प्राप्त नहीं होता। जयशेखरसूरि के शिष्य होने से मेरुचन्द्र का समय 1420 से 1500 के मध्य का निश्चित रूप से माना जा सकता है। (2) जयशेखरसूरि के लिये 'बभूवुः' शब्द का प्रयोग होने से वाडव का रचना काल 1465 से 1500 के मध्य का माना जा सकता है। लेख संग्रह
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy