________________ संभव है मुगलों ने जिस समय आबू के प्रसिद्ध जैन मंदिरों के कुछ हिस्से का ध्वंस किया था उस समय ही इस विष्णुदेव के मन्दिर को भी कुछ क्षति पहुँचाई हो। इसीलिये जीर्ण देखकर साह आसा ने जीर्णोद्धार करवाया हो। जहाँ हम देखते हैं कि एक तरफ तो मुगल लोग धार्मिक असहिष्णुता और फिरकापरस्ती के वशीभूत होकर भारतीय संस्कृति के प्रतीत देवालयों का नाश कर रहे थे तो दूसरी तरफ पंथभाव और साम्प्रदायिक मनोवृत्तियों का त्याग कर एक जैन हिन्दू मन्दिर का उद्धार करवा रहा था, जो हमें सूचना देता है कि जैन संस्कृति और वैदिक संस्कृति कोई पृथक् वस्तु नहीं किन्तु एक ही भारतीय संस्कृति की सतत प्रवहमान दो धाराएँ थीं जो सदा से इकाई रूप में नहीं हैं और रहेंगी। परन्तु आज पुनः वही धार्मिक / असहिष्णुता मुगलों में ही नहीं किन्तु भारतीय संस्कृति के नाम से चिल्लानेवाले समाजों में भी हम देख रहे हैं। क्या ही अच्छा हो कि आज भी हम उसी प्रकार भारतीय संस्कृति के नाते अद्वैत रूप में होकर, कन्धे से कन्धा भिड़ाकर सांस्कृतिक उत्थान में पूर्ण सहयोग दें। - अन्त में एक निवेदन और कर देना चाहता हूँ कि आज जहाँ जैन और हिन्दू लाखों की संख्या में इस तीर्थ पर यात्रा के लिये जाते है, वहाँ किसी की भी इस जीर्ण-शीर्ण देवालय पर दृष्टि पड़ी प्रतीत नहीं होती। आवश्यकता है, कि इस जीर्ण देवालय का पुनः उद्धार करवाया जाए। हमें अपनी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक निधियों की इतनी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये। क्या पुरातत्त्व विभाग इस ओर ध्यान देगा? [श्री जैन सत्य प्रकाश, वर्ष-१९, अंक-२-३] 298 लेख संग्रह