________________ 2. दूसरे चरण में चौबीस तीर्थंकरों के नाम, 11 गणधरों के नाम, 6 श्रुतधरों के नाम, युगप्रधान आचार्यों के नाम - स्थूलभद्र, महागिरि, सुहस्ती, शान्तिसूरि, हरिभद्रसूरि, श्यामार्य, शाण्डिल्यसूरि, रेवतीमित्र, आर्यधर्म, आर्यगुप्त, समुद्रसूरि, आर्य मंख, आर्य भद्रगुप्त, आर्य भद्र, आर्य रक्षित, पुष्यमित्र, आर्य नन्दी, आर्य नागहस्ति, आर्य रेवती, आर्य ब्रह्म,नागार्जुन, गोविन्दसूरि, संभूतिसूरि, लौहित्यसूरि, श्रीवल्लभी में जैनागमों को ताड़पत्र पर सुरक्षित रखवाने वाले देवर्धिगणि क्षमाश्रमण, उमास्वाति, और भाष्यकार जिनभद्रसूरि आदि के पश्चात् अपनी सुविहित परम्परा के आचार्यगणों - देवसूरि, नेमिचन्द्रसूरि, उद्योतनसूरि, वर्द्धमानसूरि, जिनेश्वरसूरि, जिनचन्द्रसूरि, अभयदेवसूरि, जिनवल्लभसूरि, जिनदत्तसूरि, जिनचन्द्रसूरि, जिनपतिसूरि, जिनेश्वरसूरि, जिनप्रबोधसूरि, जिनचन्द्रसूरि, जिनकुशलसूरि, जिनपद्मसूरि, जिनलब्धिसूरि, जिनचन्द्रसूरि, जिनोदयंसूरि, जिनराजसूरि, जिनभद्रसूरि, जिनचन्द्रसूरि, जिनसमुद्रसूरि, जिनहंससूरि, और जिनमाणिक्यसूरि के नामोल्लेख सहित सद्गुरुओं को प्रणाम कर यह अद्भुत पत्र लिखा गया है। 3. तीसरे चरण में गणनायक जिनचन्द्रसूरि के सद्गुणों और विशिष्ट कार्यकलापों का वर्णन करते हुए कवि कहता है - स्तम्भनपुर में विराजमान ओकेशवंशीय, रीहड़कुलभूषण, श्रीवन्त शाह की धर्मपत्नी श्रिया देवी के यहाँ जन्म लेने वाले, श्रीजिनमाणिक्यसूरि के उपदेशों से प्रतिबोधित होकर बाल्यावस्था में दीक्षा ग्रहण करने वाले, जैसलमेर दुर्ग में आचार्य/गणनायक पद प्राप्त करने वाले (वि. सं. 1612), विक्रमपुर (बीकानेर) में क्रियोद्धार करने वाले (वि. सं. 1614), फलवर्द्धिपुर (मेड़तारोड) में महामंत्रों की शक्ति से प्रभुमन्दिर के तालों का उद्घाटन करने वाले, दिल्ली में शत्रुओं का उच्चाटन करने वाले, योगिनियों की साधना करने वाले, सूरिमन्त्र की आराधना करने वाले, गुर्जर देश में तपागच्छीय विद्वान द्वारा निर्मित पुस्तिका के विवाद पर शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त करने वाले, लाभपुर में सम्राट अकबर को प्रतिबोध देकर शाही मुद्रा से अङ्ग, कलिङ्ग, प्रयाग, चित्रकूट, मेदपाट, सिन्धु सौवीर, काश्मीर, जालन्धर, गुजरात, मालव, काबुल, पंजाब आदि प्रदेशों में अमारी घोषणा का पालन करवाने वाले, युगप्रधान पद धारण करने वाले, खंभात की खाड़ी के समस्त जलचरों को अभय दान दिलवाने वाले, पंजाब की पंच नदियों के संगम पर पाँचों पीरों को अपने अधीन करने वाले महावैराग्यवान भट्टारक श्री जिनचन्द्रसूरिजी हैं। चतुर्थ चरण में स्तम्भ तीर्थ नगर और मन्दिर का सालङ्कारिक सुललित पदों द्वारा वर्णन कर वहाँ विराजमान युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि के साथ निम्न विद्वान् साधु वर्ग था - उपाध्याय जयप्रमोद, श्री सुन्दर, रत्नसुन्दर, धर्मसिन्धुर, हर्षवल्लभ, साधुवल्लभ, पुण्यप्रधान, स्वर्णलाभ, नेतृऋषि, जीवर्षि, भीम आदि साधुसाध्वियों के समूह से सुशोभित हो रहे थे। . मेदिनी तट (मेडता) से यह पत्र समयसुन्दरजी ने लिखा था। उनके साथ में उस समय में 12 साधु - हर्षनन्दन, रत्नलाभ, मुनिवर्धन, मेघ, रेखा, राजसी, खीमसी, गंगदास, गणपति, मुनिसुन्दर, मेघजी आदि। अपने साधु समुदाय के साथ समयसुन्दरगणि आचार्यश्री को सविधि नमस्कार कर यह विज्ञप्ति-पत्र लिख रहे हैं। समयसुन्दरजी लिखते हैं - पाटण से आपश्री का आदेश प्राप्त कर, विहार कर हम वरकाणा आए। वहाँ पार्श्वनाथ भगवान् को नमस्कार कर वैशाख की नवमी के दिन आडम्बर के साथ यहाँ पहुँचे। यहाँ प्रात:काल संघ के समक्ष विपाकसूत्र का व्याख्यान दे रहे हैं। हर्षनन्दन और मुनिमेघ ने 5, 11, 15 आदि दिनों की तपस्या की है। संघ के विशेष अनुरोध को ध्यान में रखकर सप्तम अङ्ग उपासकदशासूत्र का वाचन भी किया जा रहा है। पर्युषण पर्व के आने पर मन्त्री संग्राममल्ल ने धर्मशाला में लेख संग्रह 103