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________________ कविवर-श्रीहेमरत्नप्रणीतो भावप्रदीपः [प्रश्नोत्तरकाव्यम्] प्रश्नोत्तर काव्यों प्रहेलिकाओं और समस्यापूर्ति के माध्यम से विद्वज्जन साहित्यिक मनोरंजन करते आए हैं। यह परम्परा शताब्दियों से चली आ रही है। प्रश्नोत्तर काव्य आदि चित्रकाव्य के अन्तर्गत माने जाते हैं। अलंकार-शास्त्रियों ने शब्दालङ्कार के अन्तर्गत ही चित्रकाव्यों की गणना की है। चित्रगत प्रश्नोत्तरादि काव्यों का विस्तृत वर्णन हमें केवल धर्मदास रचित विदग्धमुखमण्डन में प्राप्त होता है, जिसमें 69 प्रश्नकाव्यों का भेद-प्रभेदों के साथ वर्णन प्राप्त है। उसको काव्य रूप प्रदान करने वाले कवियों में जिनवल्लभसूरि (१२वीं) का मूर्धन्य स्थान माना जाता है। उनके ग्रन्थ का नाम 'प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतक काव्य' है। सम्भवतः इसी चित्रकाव्य परम्परा में अथवा जिनवल्लभ की परम्परा में हेमरत्नप्रणीत भावप्रदीप ग्रन्थ प्राप्त होता है। कवि हेमरत्न पूर्णिमा गच्छीय थे। हालाँकि भावप्रदीप में गच्छ का उल्लेख नहीं किया गया है किन्तु अन्य साधनों से ज्ञात होता है। हेमरत्न द्वारा स्वलिखित प्रति में आचार्य का नाम देवतिलकसूरि लिखा है। (पद्य 118) किन्तु अन्य प्रति में आचार्य का नाम ज्ञानतिलकसूरि भी मिलता है, इसके द्वितीय चरण में कुछ अन्तर है किन्तु तृतीय और चतुर्थ चरण के पद्य 118 के समान ही हैं। यह ग्रन्थ 'नर्मदाचार्य' की कृपा से लिखा गया, किन्तु यह नर्मदाचार्य कौन है? शोध का विषय है। हेमरत्न के गुरु पद्मराज थे। गोरा बादिल चरित्र में इनको वाचक शब्द से सम्बोधित किया गया है। सम्भव है बाद में ये उपाध्याय बने हों। हेमरत्न के सम्बन्ध में और कोई इतिवृत्त प्राप्त नहीं होता है। इस काव्य की रचना विक्रम संवत् 1638, आश्विन शुक्ला दशमी, विजयदशमी के दिन बीकानेर में की गई। (रचना प्रशस्ति पद्य 1) इस भावप्रदीप की रचना बच्छावत गोत्रीय श्री वत्सराज की परम्परा में संग्राम सिंह के पुत्र मन्त्रीश्वर कर्मचन्द्र के अनुरोध पर की गई है, जो कि बीकानेर नरेश रायसिंहजी के मित्र थे। बीकानेर के वरिष्ठ मन्त्री थे। नीतिनिपुण थे और लब्धप्रतिष्ठ थे। (पद्य 5, 6, 7) मन्त्री कर्मचन्द बच्छावत न केवल बीकानेर नरेश के ही मित्र थे अपितु सम्राट अकबर के भी प्रीतिपात्र थे और पोकरण के सूबेदार भी थे। खरतरगच्छ के अनन्य उपासक थे। पोकरण से सम्राट अकबर के समीप लाहौर जाते समय इन्होंने फलौदी, मेड़ता रोड (फलवर्द्धि पार्श्वनाथ), सांगानेर, अमरसर, तोशामनगर, सिरसा आदि स्थानों पर भी दादाबाड़ियों की स्थापना की थी। सम्राट की इच्छानुसार जिनचन्द्रसूरि का युगप्रधान पद-महोत्सव भी कर्मचन्द बच्छावत ने ही किया था। इनका विस्तृत परिचय जानने के लिए महोपाध्याय जयसोम रचित 'कर्मचन्द-मन्त्री-वंशप्रबन्ध' (विक्रम संवत् 1650), गुणविनयोपाध्याय रचित 'कर्मचन्द-मन्त्री-वंशप्रबन्ध' वृत्ति (विक्रम संवत् 1657), अगरचन्द भंवरलाल नाहटा लिखित युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि (पृष्ठ 213 से 239), महोपाध्याय विनयसागर लिखित खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास आदि द्रष्टव्य हैं। 78 लेख संग्रह
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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