________________ दमयन्ती कुचौ भूत्वा प्रभाप्रवाहे चक्रभ्रमं करोति / अयम्भावः-कुचयोर्यच्चक्रभ्रमकारित्वं तत्तु कलशनिष्ठत्वमेव कलशपरिणतिरूपत्वात् कुचयोरिदानीं कलशे सा चक्रभ्रमकारिता / कुतस्त्येति विचारे कारणान्तरेष्वभावाद् दण्डनिष्ठैव इत्युत्प्रेक्ष्यते / दण्डे च चक्रभ्रमकारितास्त्येव। घट कारणीभूतं चक्र स एव भ्रमयतीति शब्दच्छलेन व्याख्यानम् // 32 // . प्रस्तुत अर्थकल्पलता टीका एव दुर्लभ जैन टीका है। इसकी एक मात्र किंचित् अपूर्ण प्रति ही.. उपलब्ध है। अत: जैन संस्थाओं को चाहिए कि इसका सुयोग्य विद्वानों से सम्पादन करवा कर प्रकाशन करें और इसकी फोटो स्टेट कॉपियाँ करवाकर बड़े-बड़े स्थानों में रक्खें। वास्तव में यह जैन समाज और जैन संस्थाओं के लिये खेद का विषय है कि नैषध पर प्राप्त पाँचों जैन टीकायें अद्यावधि अप्रकाशित हैं। इन पाँचों टीकाओं की प्रतियाँ भी विरल/गिनी-चुनी ही प्राप्त हैं / जैन संस्थाओं ने समय रहते ध्यान नहीं दिया तो जैन विद्वानों द्वारा भारती-साहित्य की समृद्धि में किया गया योगदान आज की पीढ़ी द्वारा निरर्थक/निष्फल हो जायेगा। [मणिभद्र पुष्प-२५] 000 162 लेख संग्रह