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महाराजा कुमारपोल चौलुक्य
का पुत्र सिद्धराज हुआ। इसका राज्याभिषेक वि० सं० ११५० पौष वदि ३ को हुआ। यह राजा बडा प्रतापी और विद्वान् था । अतएव पण्डितों का योग्य सत्कार करने का भी इसको पूरा शौक था। इसी शौक के कारण इसने कई विद्वानों को सहारा दिया और आचार्य हेमचन्द्र जैसे सर्वदेशीय विद्वान् से सङ्गति करके उनसे एक महान् पश्चाङ्गी व्याकरण बनाने की नम्र प्रार्थना की । आचार्य हेमचन्द्र ने भूपाल की प्रार्थना को स्वीकार करके "सवो लाख श्लोक. प्रमाण “सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासन" नाम का संस्कृत आदि सात भाषाओं का अद्वितीय व्याकरण बना कर गुजरात का, सिद्धराज का और अपना गौरव बढ़ाया । और भी विश्वेश्वरदेवबोध, श्रीपाल, वाग्भट, वादिदेवमूरि प्रभृति जैन विद्वानों के ऊपर उसकी बहुत भक्ति थी। इसी कारण यद्यपि पहले उसकी जैन धर्म पर रुचि नही थी परन्तु जैन विद्वानों के समागम से उसने कई जैन मन्दिर भी अपने खर्चे से बनवाए थे और जैन धर्म पर प्रेम रखता था । सोमनाथ के ऊपर इसकी विशेष भक्ति थी।
१. 'प्रभावकचरित्र' में हेमचन्द्र सूरि-प्रवन्ध श्लो० ७९ से ११५ ।
२. प्रभावकचरित्र । टांड साहब ने और इट्रिसी ने, जैन बौद्ध को एक मान कर, सिद्धराज को बौद्ध-धर्मी माना है। पर यह बात ठीक नहीं है । यह शैव-धर्म को पालता था और जैन-धर्म का उत्तेजक व प्रशंसक था । बौद्र-धर्म तो उस समय विलीनप्राय था । भारत के बहुत विद्वानों ने जैन मन्दिर, मूर्ति; साधु व राजाओं को बौद्ध मानने की पहले गम्भीर भूलें की हैं ।
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