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शिक्षा और परीक्षा
पहले के राजा लोग प्रजा में शिक्षा प्रचार के लिए कितना खर्च करते थे और वर्तमान के राजा शिक्षा के लिए कितना खर्च करते हैं, इसका विचार पाठक स्वयम् कर ल । मेरा तो नम्र मन्तव्य है कि, वार्तमानिक राजा अपनी प्रजा को आदर्श और पूर्ण शिक्षित बनना ही नहीं चाहते हैं। इसके कई प्रमाण दिये जा सकते हैं । शास्त्रज्ञ कहते हैं कि करीब सवा सौ वर्षों के पूर्व केवल बंगाल में ही छोटे-बडे अस्सी हजार विद्यालय थे ! विदेशी शासन के आने के बाद बंगाल में ही नहीं, सारे भारत में, उनकी संख्या दिन-दिन घटती ही गयी है । कई ग्रन्थों के आधार पर हम कह सकते हैं कि, पहले की अपेक्षा इस समय भारतमें शिक्षा की दशा और पद्धति बहुत नीचे गिर गयी है । वार्तमानिक शिक्षा का परिणाम या फल तो इतना सडा और गिरा हुआ नजर आता है कि, सुन कर आँखों में आँसू आ जाते हैं!
अभी जो शिक्षा दी जाती है, वह सबको विदित ही है । उसको फल भारत के लिए सर्वथा असन्तोष प्रद ही नहीं, बल्कि भयङ्कर भी है। वर्तमान काल में शिक्षा का ध्येय ही बदल गया है, यह सोचनीय बात है । पद्वति और प्रकार में देशकालानुसार परिवर्तन होना स्वाभाविक है, परन्तु मुख्य ध्येय में विपर्यय हो जाना तो बहुत ही हानिकारक है। इसके लिए केवल
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