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शिक्षा और परीक्षा
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रोकने के लिये एक प्रार्थना-पत्र भेजा है, जो कि १७-७-२२ "जयाजी प्रताप' में छपा है । पदवियों का मोह सारे जगत में बढ़ता जा रहा है। क्या यूरोप, क्या अमेरिका
और क्या भारत, सर्वत्र यह रोग प्रविष्ठ हो चुका है । अमुक परीक्षा में उतीर्ण मूर्ख और अयोग्य आदमी भी एक पुराने अनुभवी विद्वान का तिरस्कार और साम्य कर बैठने की भी धृष्टता करता है ! केवल किसी एक भाषा या विषय के लिए आक्षेप रूप में नहीं कहता हूँ, यथार्थ आलोचना के रूप में ही कहता हूँ । जैसे कि, शिक्षा और परीक्षा की पद्धति है, अगर उसमें सुधार न हुआ, तो सर्वत्र पल्लव ग्राही पाण्डित्य के सिवा कुछ नहीं दिखेगा । एक एक विषय के आदर्श विद्वान् और नररत्न भारत को नहीं मिल सकेगा।
पाठक मेरे इस कथन से यह समझने की भूल न करें कि, मैं परीक्षा का विरोधी हूं । मैं तो समझा हूं और कहता है कि, परीक्षा हर एक बात की होनी चाहिये । परीक्षा के निमित्त जो तैयारी और मनोबल टिकता है उससे हमारे अन्दर गहरे संस्कार पड़ते हैं । बिना परीक्षा दिये दूसरे को तो क्या, अपने को भी सन्तोष नहीं होता कि, मुझमें योग्यता है । मैंने अच्छे से अच्छे बुद्धिशाली छात्रों से सुना है कि अगर परीक्षा का आकर्षण न होता, तो हम ठेठ भाषा तक का, एकाग्र चित्त से, अभ्यास नहीं कर सकते थे । मैं खुद परीक्षा का पक्षपाती हूं।
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