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आचार्य हेमचन्द्रसूरि और उनका साहित्य
चन्द्र जी ने एक श्लोक सुनाया, वह यह है:
कारय प्रसरं सिद्ध ! हस्तिराजमशङ्कितम् । त्रस्यन्तु दिग्गजाः किं तैर्भूस्त्वयैवोद्धता यतः ॥
प्र० चरित्र ६७ अर्थात्-हे सिद्धराज ! तू अपने हाथी को निःशंक होकर चला, पृथ्वी को धारण करनेवाले दिग्हस्ति त्रस्त हों, क्योंकि अब तो इन दिग्गजों की जरूरत नहीं है । तुमने ही भूमि को धारण कर लिया है ।
सिद्धराज पर प्रभाव रोजा, हेमचन्द्र की कवित्वशक्ति और चातुरी को देखकर उनपर मुग्ध हुआ । उसने पाटण में आने की बधाई दी और अपने दरवार में आने का आचार्य को निमन्त्रण दिया । उसके बाद आचार्य हेमचन्द्र बार २ राज्य दरवार में जाया करते थे । आचार्य समयानुसार विद्वत्तापूर्ण उपदेश से धीरे धीरे राजा का चित्त काफी रञ्जित होगया । राजा के दिलों में हेमचन्द्र ने ऊँचा स्थान पालिया । इसका यह कारण था कि वे एक विद्वान् ही नहीं थे साथ-साथ उच्च कोटि के निःस्पृही संयमी भी थे। अकेला पांडित्य इतना असर नहीं कर सकता, जितना कि वह त्याग के साथ होते हुए असर कर सकता है । सौ मन शान से पाव भर त्याग की कीमत अधिक है। जैन साधु होने के कारण हेमचन्द्र में ये दोनों बातें थीं। सिद्धराज के
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