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आवार्य हेमचन्द्रसूरि और उनका साहित्य
अर्थात्--हम ही जैन लोग तेज के निधि सूर्यदेव को अपने हृदय में यथार्थ धारण करते हैं, क्यों कि सूर्य के अस्त रूप कष्ट को आते ही हम लोग ( रात्रिमें ) भोजन आदि छोड़ देते हैं, कुछ नहीं लेते हैं ।
२-एकवार डाहलदेश के राजा के संधिपत्र का प्रसंग चल रहा था । उसके अन्त में यह श्लोक लिखा थाः
आयुक्तः प्राणदो लोके वियुक्तो मुनिवल्लभः । संयुक्तः सर्वथाऽनिष्टः केवली स्त्रीषु वल्लभः ॥
प्र: चिं. इसका अर्थ करने में तत्रत्य पण्डित उलझ रहे थे । हेमचन्द्राचार्य से अर्थ पूछा तो उन्होंने शीघ्र ही उत्तर दिया कि 'हार' अर्थ है अर्थात् 'आ' युक्त हार-आहार प्राण देनेवाला है । विहार, जैन साधुओं की मुसाफरी या जैन मन्दिर मुनिओं को प्रिय है। संहार अनिष्ट है और केवल इकल्ला 'हार' स्त्रिओं को यल्लम होता है ।
३-कुमुदचन्द्र और वादिदेवसरिका का सिद्धराज के समक्ष बडा वाद हुआ । वहाँ आचार्य हेमचन्द्र भी निमन्त्रित हुए। कुमुदचन्द्र वृद्ध थे और अपनी विद्या से पण्डितंमन्य अहंयु भी थे। उन्होंने उपहास करते हुए हेमचन्द्र से कहा-'भो ! तक्रं पीतम् ?' (तुमने छास पीली है ? ) आचार्य हेमचन्द्र ने नवीन प्रतिभा से तत्काल
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