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आवार्य हेम चन्द्रगुरि और उनका साहित्य
सिद्धराज से एक लाख रुपया देववोध को भेंट में दिलाया । हेमचन्द्र के अनुगृहीत होकर देवबोध ने 'आचार्य को सरस्वती तुल्य मानकर आचार्य की स्तुति सभा में की। उसने कहाः
पातु वो हेमगोपालः कम्बलं दण्डमुद्वहन् ।
षड्दर्शनपशुग्रामं चारयन् जैनवाटके ।।
अर्थात् - कम्बल और दण्ड को धारण करने वाले हेमचन्द्र रूपी गोपाल छः दर्शनों के अनुयायी रूपी पशुओं को जैनधर्म में चारने ले जाते हैं । इससे यह स्पष्ट होतो है कि हेमचन्द्राचार्य की उदारता से देवबोध विद्वान् कितना प्रभावित हुआ था । वर्तमान में धर्मोपदेशकोंगुरुओं में कितनी असूयावृत्ति है ? एक आर्यसमाजी को सनातनी सन्यासी देखकर घुरघुराता है, और सनातनी साधु को देखकर आपसमाज का सन्यासी दंडेबाजी करने को तैयार होता है । इस परस्पर धर्मद्वेषवृत्ति से ही भारतवर्ष' कमजोर और निन्दित होता जाता है ।
मनसा मन्यमानश्व पुरूपां तां सरस्वतीम् ॥३०२॥ स विस्मय गिरं प्रात सारसारस्वतोज्ज्वलम् । पार्षघपुलकांकुर घनाधनघनप्रभाम् ॥३०३॥
प्रभावकचरित्र २ पक्षपातो भवेद् यस्य तस्य पातो भवेद ध्रुवम् ।
दृष्ट खगकुलेष्वेवं तथा भारतभूमिषु ॥
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