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शिक्षा और परीक्षा
कर लिए जाते हैं। परीक्षा में पास होने के बाद छात्र ग्रन्थों को पढना तो क्या, उन्हें छूने तक को पाप समझते है ! बन पडा तो उन ग्रन्थों को दो चार आनों में बेचकर वे निश्चिन्त हो जाते हैं ! मतलब कि, वर्तमान समय में परीक्षा में उत्तीर्ण होने मात्र के लिए ही बहुधा शिक्षा प्राप्त की जाती है, विद्वान् और सदाचारी बनने के लिए नहीं । यही कारण हैं कि, हर साल हजारों की संख्यामें ग्रेजुएट और हिन्दी, संस्कृत के शास्त्री निकलने पर भी समाज में शिक्षा का परिणाम नहीं सा दीखता है ! छात्रों में कुछ अपवादों को छोड कर बहुत तो पढे हुए भी मूर्ख कहे जा सकते हैं।
__ वतमान काल में परीक्षा लेने की पद्धति भी अच्छी नहीं है । सारे वर्ष की मेहनत का फैसला तीन चार घंटों में ही कर दिया जाता है। प्रश्न-पत्र निकालने का और देखने का ढंग भी ऐसा है, जिससे कई बार अच्छे से अच्छे बुद्धिशाली छात्र को भी फेल होने का और अयोग्य छात्र का ऊंचे नम्बर के साथ पास होने का मौका मिलजाता है! दोनों तरह से इनसाफ का खून ही होता है। परीक्षा और विविध प्रकार के टाइटिल दिन दूने रात चौगुने बढते जा रहे हैं। इसी पर अच्छे-अच्छे आदमी मुग्ध होकर अपनी शक्ति और लक्ष्मी का व्यय करते हैं । हाँ, अच्छे विद्वान् और सज्जन ऐसी परीक्षाओं का विरोध भी करते हैं। अभी एक ताजी बात है। उज्जैन के कुछ पण्डितों ने ग्वालियर स्टेट के एजुकेशन मेम्बर साहब के पास ऐसी परीक्षाएँ
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