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शिक्षा और परीक्षा
शिक्षा पूरी करने के बाद जब नालन्दा और उदन्तपुरी के विद्यापीठों में छात्र प्रवेश करते थे, तब प्रवेश द्वारमें ही उनकी परीक्षा ली जाती थी । इस परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर ही छात्र विद्यापीठों में प्रवेश कर सकते थे । पन्द्रवी सदी में मिथिला के विद्यापीठ में सब से ऊँचो परीक्षा 'शलाका' परीक्षा थी। पाठय ग्रन्थों में सूई डाल कर परीक्षक, अपनी इच्छा के अनुसार, अनिर्णीत पत्रकसंदर्भ और विषय की परीक्षा लेता था ! 'हिन्दना विद्यापीठो' नोमक गुजराती ग्रन्थ कर्ता का कहना है कि, “वासुदेव पण्डित ने ऐसे सौ ग्रन्थों के उत्तर देने में पूरी सफलता प्राप्त की थी। इसीसे उन्हें सार्वभौम पद मिला था ।" पहले की ऐसी ही कडी परीक्षा थी। रघुनाथ शिरोमणिने भी नवद्वीप में विद्यापीठ स्थापित कर वहां भी मिथिला जैसी परीक्षा चलायी थी। आये हुए विद्वानों की राजसभाओं में राज-पण्डितों द्वारा परीक्षा ली जाती थी। राजा लोग उन्हें प्रसन्न होने पर धन वस्त्रादि के साथ उपाधि भी देते थे। ऐसे उदाहरण विक्रम, भोज, सिद्धराज और कुमारपाल के राज्य काल में बहुत मिलते
पहले के जमाने में पूरा अध्ययन कर विद्वान् बनना ही लक्ष्य था । परीक्षा तो केवल अपनी शक्ति का अन्दाज लगाने के लिए दी जाती थी। गुरु भी शिष्यों को ज्ञान हृदयङ्गम कराने में अधिक ध्यान देते थे। वह परीक्षाको
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