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शिक्षा और परीक्षा
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पिछडा हुआ है । दूसरे स्वतन्त्र देशों में अक्षर-ज्ञान से अनभिज्ञों की जितनी संख्या है उतनी संख्या भारत में अक्षर ज्ञानवालों की है ! क्या यह बात राजा और प्रजा, साधु और गृहस्थ सबके लिये लज्जा की नहीं है ? हमारे पास अब प्राचीन शिक्षा की पद्धति नहीं रही है और न ध्येय | दरिद्रता, आपसी झगडे, दुराचार, शारीरिक और मानसिक कमजोरियां, देश, धर्म और जाति के प्रति द्वेष प्रभृति वर्तमान शिक्षा के कुफल भी हमें मिले हैं ।
शिक्षितों में जो शिक्षा के गुण आने चाहिये, वह वर्तमान समय में नहीं से आते हैं । दिन प्रतिदिन शिक्षित लोग स्वतन्त्र होने के बजाय अनेक प्रकार के बन्धनों से बद्ध होते जा रहे हैं । उनमें आध्यात्मिक और आधिभौतिक कमजोरियाँ बढती जा रही हैं। ऊंची डिग्री प्राप्त करते-करते, उनमें प्रायः चरित्रभ्रष्टता, स्वास्थ्यहीनता तथा धर्म, जाति और पूज्य प्रति अनादर बढ जाता है । प्रचुर धन व्यय भी होता है। यूनिवर्सिटियों से निकलने के पश्चात् उनको चारों ओर निराशा दीखती है ! न उनके पास कोई स्वतन्त्र उद्योग होता है और न कोई वैसी शक्ति ही उन्हें मिलती है, जिससे वह अपना आवश्यक निर्वाह भी कर सकें । टाइटिलों के सर्टिफिकेटों को देखकर भले ही खुश होते हों पर बहुतों का तो टाइटिलों के पीछे जितना करना पडा है, उतना धन वह सारी जिन्दगी में नह । कमा सकते ! इधर फैसन की आदत पडजाने से उनको अपना राक्षसी खर्च जारी ही रखना पडता है । कई बार
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