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शिक्षा और परीक्षा
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राजा ही दोषी नहीं हैं, प्रजा की दरिद्रता और क्षुद्रवृत्ति भी कारण है ।
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शिक्षा का प्रश्न बडा गहन है, उद्देश्य महान् है, क्षेत्र विशाल है, फल ऊँचा है। वर्तमान समय में शिक्षा की समस्या जटिल होती जा रही है । बडे बडे अनुभवी विद्वान इसको सुलझाने का यत्न कर रहे हैं, परन्तु कोई कामयाब नहीं होता । न गवर्नमेंट की यूनिवर्सिटियाँ सफल हुई हैं, न आर्यसमाज के गुरुकुल | प्रति वर्ष २५ लाख से अधिक द्रव्यव्यय करने वाले न जैनों के महाविद्यालय सफल होते हैं और न क्रिश्चियनों के मिश्रनरी स्कूल | बंगाल के कुछ महामनाओं ने इस समस्या को सुलझाने के लिए विविध प्रकार के प्रयोग किये हैं और करते जा रहे हैं । इसमें उन्हें कुछ अंश में सफलता मिली भी हो, तो भी सारे भारतवर्ष के लिए वह नगण्य है । हमारी शिक्षा से जबतक भगवान् महावीर, बुद्धदेव और रामचन्द्र जैसे धार्मिक नेता, सीता, सुभद्रा जैसी सतियाँ; लक्ष्मीबाई जैसी वीराङ्गनाएँ; कालिदास, हेमचन्द्र जैसे कविः गौतम कणाद, सिद्धसेन दिवाकर, समन्तभद्र, हरिभद्र, देवसूरि, गंगेशोपाध्याय और यशोविजय उपाध्याय जैसे दार्शनिक, भास, रामचन्द्र जैसे नाटककारः अमर हेमचन्द्र जैसे कोषकारः पिङ्गल मुनि जैसे छन्दःकार: प्रताप, शिवाजी, वस्तुपाल, तेजपाल जैसे वीरव्याघ्र नहीं; तबतक हम कैसे कह सकते हैं, कि हमारी आधुनिक शिक्षा उचित है ?
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