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जैन साहित्य की प्रौढता और समृद्धता
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जैन साहित्य की प्रौढ़ता * और समृद्धता
एक
शब्द की व्याख्या
एक तो काव्य परिगणित रूढ
साहित्य एक ऐसी चमत्कारी वस्तु है कि जिससे असभ्य देश और जाति सभ्य हो जाती है । अवनति में पड़ा हुआ देश उन्नति के शिखर पर चढ़ता है । समय का उपहास पात्र देश साहित्य से संस्कारित होकर दूसरे देशों का उपहास करने लगता है । यह किसका प्रताप है ? कहना होगा कि यह प्रौढ ( विशुद्ध ) और समृद्ध साहित्य का प्रताप है । साहित्य संस्कृत विद्वानों ने दो प्रकार से की है। नाटक और चम्पू विषय के ग्रन्थों में व्याख्या है और दूसरी व्याख्या ( हितेन सह साहित, तत्स्वभावः साहित्यम् ) जो हित को करने वाला है वह साहित्य है | इस छोटे प्रस्तुत निबन्ध में दूसरे अर्थ के अनुसार मैं लिखूंगा । जैन विद्वान् आचार्यों और श्रावकों ने जो प्रत्येक विषय के प्रौढ साहित्य की जगत को अनूठी भेंट दी है इस उपकार को जगत् कभी नहीं भूल सकता। उनकी निःस्वार्थ भावना से बने हुए साहित्य में आध्यात्मिक और ऐहिक भाव हैं, रस का उल्लास है, अलंकार की छटा है । प्राकृतिक वर्णन और
* प्रभात, गुजरांवाला, वर्ष १ अङ्क ४ ।
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