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जन समाज और पाठ्यक्रम का सम्बन्ध
संचालकों के प्रति समाज हितैषी महानुभावो! संचालको! अगर आपको सच्ची समाजसेवा और धर्मसेवा करनी है, अगर आपको समाज के धन का सच्चा उपयोग करना है, अगर आपको अपने दिग्गज और प्रतिष्टित पूर्व के विद्वान आचार्यों की और ग्रन्थों की कीर्ति बढानी है, तो आप छाटी उमर से ही छात्रों को परीक्षा का लोभ दिये बिना मूल स्थायी व्यापक ज्ञान दीजिये । शास्त्रज्ञान के साथ अनुभव और व्यवहार ज्ञान के तरफ भी उनको आकृष्ट कीजिये । ग्रन्थों के लगाने वाले और पूर्वाचार्यों की तरह नवीन युक्ति तर्क विशेषता वाले नवीन ग्रन्थ बनाने वाले अपने नवोन विद्वान् भी उत्पन्न हों वैसा तलस्पर्शी पांडित्य उनमें भरिये । दि०, श्वे०, स्थानकवासी सम्प्रदायका कदाग्रह उनके मस्तिष्क को नहीं बिगाडे, वैसी आपसी उदारता की शिक्षा दो। श्वेतांबरों के या स्थानकवासी, वैदिकों के न्याय-व्याकरण और काव्य ग्रन्थ पढाना पाप है, हानिकर है, ऐसी संकुचित शिक्षा देकर छात्रों को एकदेशीय अपूर्ण पण्डित मत बनाओ । परन्तु ऐसा करने में आपको परिश्रम बहुत उठाना पडेगा। धन तथा समय का व्यय भी काफी करना पडेगा। परन्तु फलस्वरूप सच्चे आदर्श विद्वान् थोडे भी होंगे तो आपका धनव्यय और समय व्यय सफल होगा। समाज का मुख गौरवोज्वल होगा । इससे आपको समाज का सच्चा आशीर्वाद मिलेगा । और इस पुण्य में आपको भी इस भव और परमव में योग्य सुख मिलेगा।
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