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जैन समाज और पाठ्यक्रम का सम्बन्ध
संस्थामें श्वेतांबर न्याय मध्यमा का स्याद्वादमंजरी ग्रन्थ पढा रहे थे । पढाते २ प्रथमकारिका की व्याख्यामें ___"यथा निशीथचूौँ भगवतां श्रीमदर्हतामष्टोत्तरसहस्रसंख्यबाह्यलक्षणसंख्याया उपलक्षणत्वेनाऽन्तरङ्गलक्षणानांसत्त्वादीनामानन्त्यमुक्तम् ।"
-स्याद्वादमंजरी पृ०६।
यह पंक्ति आई । इसमें पंडित जी ने 'निशीथचूणों' का अर्थ किया कि-"निशीथ" नाम रात का है। उसमें बनाया हुआ “चूर्ण" "निशीथचूर्ण", उसमें अर्थात् उस रात्रिचूर्ण से श्रीतीर्थकर भगवान् के १००८ बाह्य लक्षण जाने जाते हैं...............।
विद्वान् पाठको! आप देखिये कि यहां पर वस्तुतः "निशीथचूर्णि" नामका श्वेताम्बरों में कोई आप्त ग्रन्थ है । उस ग्रन्थ में तीर्थकर भगवान के बाह्य और अभ्यंतर गुणों का वर्णन किया है । परन्तु उपर्युक्त पंडितजी ने निशीथचूौँ का अर्थ कैसा विचित्र बैठा दिया कि पढने वाले छात्र हंस पडें ।
इससे मेरा कहना पुष्ट होता है कि वर्तमान प्रणाली से अपने छात्रों में पठित विषय-ग्रन्थ को भी लगाने की योग्यता-व्युत्पत्ति नहीं आती है। दूसरी बोत यह है कि दि० जैन संस्थाओं से न्यायतीर्थ सैकड़ों छात्र निकलते हैं, परन्तु उन छात्रों में बहुततया व्याकरण का आवश्यकीय
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