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जैन समाज और पाठ्यक्रम का सम्बन्ध
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साधारण ज्ञान नहीं सा होने से रघुवंश जैमा काव्य भी पढाने में उन छात्रों को पसीना छूटता है या गप्पगोले मारने पड़ते हैं। एक अच्छे प्रतिष्ठित ब्राह्मण पंडित ने मुझे कहा था कि ,,अमुक.........दि० जैन पाठशाला के लडके, जो कि न्यायतीर्थ में पास हो चुके हैं, वे हमारे प्रथमा वाले छात्र को भी नहीं पढ़ा सकते हैं ।" इन सब वृतांत से मेरे साथ, प्रत्येक जैन को समाज के न्यायतीर्थादिकों के विषय में दुःख हुए विना नहीं रह सकता है । परीक्षोत्तीर्ण छात्रों की बेपरवाही या मूर्खता से प्रौढतम जैन साहित्य के ग्रन्थों पर और जैनाचार्यों पर कलंक लगता है । क्या हमारे प्रलोकवार्तिक, राजवार्तिक, प्रमेयकमलमार्तण्ड, अष्टसहस्री, स्याद्वादमंजरी, स्याद्वादरत्नाकर, रत्नाकरावतारिका और सम्मतितर्क ऐसे ग्रन्थ हैं कि जिससे छात्र विद्वान् नहीं होते हैं ? अपने जैनन्याय के ग्रन्थ तो ऐसे प्रौढ व्युत्पतिदायक हैं कि यदि पाठक व्युत्पन्न हो और छात्र परिश्रम और बुद्धियोग से यथायोग्य अभ्यास करे तो ब्राह्मण पंडितों के साथ भी स्पर्धा कर सकते हैं । परन्तु अपने संस्थासचालकों को इतनी कहां दरकार है कि समाजहितार्थ सच्चे विद्वान् बनावें ? उनको तो अपने येनकेन प्रकारेण थोडे ही समय में और थोडी ही शक्ति से 'न्यायतीथ बनाकर अखबारों में, रिपोर्टों में छापकर बतलाकर प्रसिद्ध होना है । और उन समाचारों से समाज से धन लेना है ।
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