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अर्धमागधी और प्राकृत
पञ्चमी-माहात्म्य आदि अन्यों में प्राकृत की मुक्त कंठ से प्रशंमा की है।
प्राचीन ग्रन्थों का अध्ययन करने के लिये और हमारे प्राचीन इतिहास तथा सभ्यता का पता लगाने के लिए संस्कृत की ही तरह प्राकृत, मागधी अर्ध मागधी, पाली और अपभ्रश आदि भाषाओं का ज्ञान प्राप्त करना नितान्त आवश्यक है। हिन्दी, बंगला, गुजराती, मराठी ओर मारवाडी प्रभृति प्रान्तीय भाषाओं की मूल स्वरूप और उनका विकास जानने के लिए तो प्राकृत और अर्ध मागधी आदि भाषाओं का जानना बहुत जरूरी है। क्योंकि, इन आर्य (वर्तमान) भाषाओं का प्रादुर्भाव इन्हीं प्राकृत आदि भाषाओं से ही हुआ है। हमारी देशी भाषाओं के सैकड़ों शब्द प्राकृत और मागधी से मिलते हैं । हिन्दी तो प्राकृत को खास ऋणी है । इसके धातु, प्रत्यय, व्याकरण के नियम और हजारों शब्द प्राकृत से एकदम मिल जाते हैं।
भाषा शास्त्र के अध्ययन को गम्भीर बनाने के लिये चंगीय और म राष्ट्रीय विद्वानों ने प्राकृत और अद्धमागधी के क्षेत्र में अधिक काम किया है । इन दिनों प्राकृत और पाली आदि भाषाओं से अब समाज-विशेष का भी द्वेष नहीं रहा है । लोगों की रुवि भी शनैः शनः इस ओर बढ़ती जा रही है। भारतीय यूनिवर्सिटियों का भी ध्यान अर्द्धमागधी की ओर गया है । भाषा विज्ञान के अध्ययन के लिए
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