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छपा हुआ अनूठा जैन साहित्य
बना है, परन्तु यह अमूल्य साहित्य जनों की आलस्यवृति, बेपरवाही और इतर धर्मिओं के द्वेष के कारण अधिकांश नष्ट हो गया, कुछ सड़ गया और अवशिष्ट प्रकाश में नहीं आया! यही वजह है कि यह साहित्य साहित्यशोधक यूरोप अमेरिको तथा भारत के विद्वानों के हाथ में काफी तादाद में नहीं पहुंचा । परिणामतः विद्वानों को इसके बारे में गलत फहमी का शिकार होना पडा! इसी कारण यूरोप के मुख्य विद्वान् डा. होपकीन्मन ने करीब तीस वर्ष पहले अपना अभिप्राय जाहिर किया कि "जैनों के पास विशिष्ट साहित्य ही नहीं है, इसलिए इनको संसार में जीने का अधिकार नहीं है !" आर्य समाज के प्रवर्तक दयानन्द सरस्वती और उनके भक्तों ने कहा है कि “जैन लोग अपने साहित्य को इसलिए दूसरों को नहीं बताते हैं कि उनके धर्म में-साहित्य में पोल है, गपोडे हैं ।" भाइयो! जरा विचार करो, जैन धर्म और उसके साहित्य पर सो झूठा कलङ्क कैसे लगा ? सच जानिये यह कलङ्क हमारे आलस्य
और पाप से लगा है। परन्तु जमाना बदला और श्री विजयधर्मसूरि जी, श्री आत्माराम जी म., वकील केशवलाल और श्रीमान् वाबू जुगमन्दरलाल जी जज हाई कोर्ट, श्रीमान् विद्यावारिधि चम्पतराय बार-एट-ला आदि के चित्त में जैनधर्म साहित्य प्रकाश करने की भावना ने स्थान लिया ! इस शुभ भावना का शुभ फल यह हुआ कि अनेक विषय के अपूर्व ग्रन्थ भंडारों के गहरे अन्धेरे में से निकलकर प्रकाश में आये, एव यूरोप और भारत के अजैन विद्वानों के हाथ में यह साहित्य पहुंचा। फिर
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