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महाकवि वाग्भट के जैन ग्रन्थ को ब्याख्या में गडबड १६७
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गत्या विभ्रममन्दया प्रतिपदं या राजहंसायते यस्याः पूर्णमृगाङ्कमण्डलमिव श्रीमत्सदैवाननम् । यस्याश्चानुकरोति नेत्रयुगलं नीलोत्पलानि श्रिया तां कुन्दाप्रदतीं त्यज्यज्जिनपती' राजीमतीं पातु वः ॥
वा० पृ० ६३
तं णमह वीअराअं जिणिन्द मुलिअ दिढ अरकसाअम् जस्त मणं व सरीरं मण सरीरं व सुपसन्नम् ॥ वा० पृ० ६५ कलवरे चन्द्रकलङ्कमुक्ता मुक्तावली चोरुगुणप्रपन्ना जगत् । त्रयस्याभिमतं ददाना, जैनेश्वरी कल्पलतेव मूर्तिः ॥
वा० पृ० ६६
ऐसा होते हुए भी पं० ईश्वरीदत्तजी सम्प्रदाय के मोह से प्रारम्भ में व्याख्या करते हुए मंगलाचरण के एक
१. यहां जिनपति से जैनों के बाईसवें तीर्थकर नेमनाथ समझना, इन्होंने राजीमती नाम की अपनी युवती स्त्री को छोड़कर संन्यास लिया था।
२. इस लेख में उसी वाग्भटालं कार के उदाहरण दिये गये हैं । जो प० ईश्वरीदत्त जी की टीका युक्त लाहोर में लाला मोतीलाल च० के यहां से प्रकाशित हुआ है, और जिस पर इन्हीं [प्रस्तुत] पंडित जी की टीका है जो समालोच्य है ।
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