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महाकवि शोभन और उनका काव्य
और प्रस्थान कर दिया । उग्र विहार कर थोडे ही समय में आप अपनी मण्डली के साथ धारा-नगरी में प्रविष्ट होते दृष्टिगोचर हुए । “अरे यहाँ जैन साधु कह से आए । राजा रुष्ट होकर न जाने इनका क्या करेंगे" इत्यादि वाक्य चारों ओर से सुनाई देने लगे । जैन धर्म के प्रति द्वेषभाव रखने वाले कितने ही मनुष्यों को बहुत क्रोध आने लगा । परन्तु जैन लोग तो आनन्द में फूले न समाते थे । नगर में प्रवेश करते ही, शोभन मुनि को, राजबाडे में जाते हुए कवि धनपाल मार्ग में ही मिल गये । जैन साधु को देख कर उनका उपहास करने के लिए उसने इनको एक वाक्य कहा कि “गर्दभदन्त ! भदन्त ! नमस्ते' अर्थात् 'गधे के समान दाँत वाले हे महाराज आपको मेरा नमस्कार है ।" बहुत वर्ष बीत जाने के कारण शोभन मुनि को वह अपने भाई के रूप में न पहचान सका । परन्तु शोभन मुनि ने तो उसको पहचान लिया था । अतः उपहास वाले वाक्य को सुनकर आपने कहा 'कपिवृषणऽऽस्य ! वयस्य ! सुख ते ? अर्थात्-"बन्दर के वृषण (अण्डकोश) जैसे मुख वाले हे मित्र! आप सुख से तो है ?'' अपने वाक्य से अधिक से अधिक उपहास चमत्कार युक्त प्रतिवाक्य सुन कर 'धनपाल' चकित हो गया, और सम्भल कर कहने लगाः “महानुभाव मैं आपकी चतुराई से परास्त हो गया। आप कौन हैं ? आप कहां से आ रहे है ? और आप किसके अतिथि हैं ?" 'हम तुम्हारे हो अतिथि हैं । इस प्रकार शोभन ने कहा । यह सुनकर धनपाल बहुत ही उलझन में पड गया। शोभनमुनि की विद्वत्ता से आकृष्ट
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