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मंडपदुर्ग और अमात्य पेथड
था। बादशाह इनसे मिलकर बड़ा प्रसन्न हुआ था। श्रीहीरविजयजी सूरि से दीक्षित कल्याणविजयजी ने यहां चातुर्मास किया था । औरंगजेब के समय में भी यहां आबादी अच्छी थी । संस्कृत ग्रन्थों में इस शहर के मंडपाचल, मंडप, मंडपगिरि और मंडपदुर्ग आदि नाम मिलते हैं। भाषाग्रन्थों में मांडव और वर्तमान मांडवगढ
१ सूरीश्वर और सम्राट पृ. २४। इस प्रसंग का एक वर्णन निम्न प्रकर उसमें छपा है:मिल्या भूपनई भूप आनन्द पाया,
भलई तुमे भलई अहीं भाणचन्द आया । तुम पासि थिइ मोहि सुख वहुत होवइ,
सहरिआर भणवा तुम बाट जोवइ ॥१३०९॥ पढायो अह्म पूतकू धर्मवात,
जिउं अवल सुणतो तुम्ह पासि तात । भाणचंद ! कदीम तुमे हो हमारे, सबही थकी तुह्म हो हम ही प्यारे ॥१३१०॥
हीरविजयसूरिरास, कविऋषभदासकवि रचित । भानुचन्द्रोपाध्याय अकबर को भी चिरकाल तक हीरविजय जी सूरि के पश्चात् उपदेश सुनाते रहे थे । देखो सूरीश्वर और सम्राट ।
२ देखो विज्ञप्तित्रिवेणीकी प्रस्तावना ।
३ पट्टावली-समुच्चय में मंडपाचल, और मण्डप नाम है। श्रीजिनविजयजीने प्राचीन लेख संग्रह पृ. ९९ में मण्डपदुर्ग और सोमतिलकस्तोत्र में मण्डपगिरि लिखा है ।
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