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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मंडपदुर्ग और अमात्य पेथड था। बादशाह इनसे मिलकर बड़ा प्रसन्न हुआ था। श्रीहीरविजयजी सूरि से दीक्षित कल्याणविजयजी ने यहां चातुर्मास किया था । औरंगजेब के समय में भी यहां आबादी अच्छी थी । संस्कृत ग्रन्थों में इस शहर के मंडपाचल, मंडप, मंडपगिरि और मंडपदुर्ग आदि नाम मिलते हैं। भाषाग्रन्थों में मांडव और वर्तमान मांडवगढ १ सूरीश्वर और सम्राट पृ. २४। इस प्रसंग का एक वर्णन निम्न प्रकर उसमें छपा है:मिल्या भूपनई भूप आनन्द पाया, भलई तुमे भलई अहीं भाणचन्द आया । तुम पासि थिइ मोहि सुख वहुत होवइ, सहरिआर भणवा तुम बाट जोवइ ॥१३०९॥ पढायो अह्म पूतकू धर्मवात, जिउं अवल सुणतो तुम्ह पासि तात । भाणचंद ! कदीम तुमे हो हमारे, सबही थकी तुह्म हो हम ही प्यारे ॥१३१०॥ हीरविजयसूरिरास, कविऋषभदासकवि रचित । भानुचन्द्रोपाध्याय अकबर को भी चिरकाल तक हीरविजय जी सूरि के पश्चात् उपदेश सुनाते रहे थे । देखो सूरीश्वर और सम्राट । २ देखो विज्ञप्तित्रिवेणीकी प्रस्तावना । ३ पट्टावली-समुच्चय में मंडपाचल, और मण्डप नाम है। श्रीजिनविजयजीने प्राचीन लेख संग्रह पृ. ९९ में मण्डपदुर्ग और सोमतिलकस्तोत्र में मण्डपगिरि लिखा है । For Private and Personal Use Only
SR No.020374
Book TitleHimanshuvijayjina Lekho
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHimanshuvijay, Vidyavijay
PublisherVijaydharmsuri Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages597
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size18 MB
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