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मंडपदुर्ग और अमात्य पेथड
मांडु इसका नाम है । मांडवगढ में उन्नीसवीं शताब्दी का एक पत्र' आालोजिकल डिपार्टमेंट को मिला है। उससे ज्ञात होता है कि वहाँ पहले १४४४ मन्दिर थे परन्तु बादशाह ने तोडकर मस्जीद व कब्रस्तान बना लिए हैं। एक मंदिर की वेदी में १०१५ मन्दिर बनाने का शिलालेख है।
__भर्तहरि-शतकत्रयके समान शतकत्रयी का कर्ता महाकवि धनद इसी मांडवगढ का था । इसने विक्रम संवत् १४९० में आलमसाहि गौरी के समय में यह तीनों शतक बनाए थे । उसका पिता देहड आलमसाहि का मंत्री था । मंडन मंत्री भी इसी जमाने का यहाँ का प्रसिद्ध विद्वान् कवि और बहादूर राजनीतिज्ञ था । उसने व्याकरण काव्यादि के कई मौलिक ग्रन्थ बनाए हूँ। तेरहवीं शताब्दी में तो यह शहर बहुत मशहुर था' । जब शाहबुद्दीन गौरी और
१ यह पत्र धर्मध्वज में वर्ष ५ के अंक १० में प्रकाशित हुआ है । एक दूसरा पत्र संवत् १८२६ का मिला है, वह भी उसी अंक में छपा है। दोनों पत्रों की भाषा हिन्दी मालवी है । सं. १८२६ के पत्र में लिखा है यहां हीरामाणेक की जैन मूर्तियां थी ।
२ यह तीनों शतक निर्णयसागर काव्यमाला के १३ वे गुच्छक में छप चुके हैं । नीतिशतक की प्रशस्ति में यह श्लोक है:बर्षे व्योमाङ्कवेदक्षितिपरिकलिते (१४९०) विक्रमाम्भोजबन्धो ---
वैशाखे मासि वारे त्रिदशपतिगुरोः शुद्धपक्षेऽतितिथ्याम् । जीवाब्दे सौम्यनाम्नि प्रगुणजनगणे मण्डपे दुर्गकाण्डे
ग्रन्थस्यास्य प्रतिष्ठामकृत धनपतिदेहडस्यैकवीरः॥ नोतिशतक १०२ ३ देखो विज्ञप्तित्रिवेणी । ४ देखो सुकृतसागरकाव्यः ।
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