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मुनि ने धनपाल के कुछ सम्मुख आकर उनका स्मितवदन से स्वागत किया । इस प्रकार उनके सामने आने में दो कारण प्रतीत होते हैं । एक तो अपने बडे भ्राता के प्रति विनय-प्रदर्शन करना और दूसरे-उसको प्रेम से आकृष्ट करना । एक ही माता की कुक्षि से उत्पन्न होनेवाले दोनों भाइयों का कई वर्षों के बाद इस प्रकार मधुर समागम हुआ। जव धनपाल को यह स्पष्ट मालूम हुआ कि यह मेरा छोटा भाई शोभन मुनि ही है, तब पराजित होने के कारण वह कुछ लज्जित भी हुआ । बाद में दोनों भाइयों में प्रेम का मधुर और निर्मल प्रवाह बहने लगा। दोनों में अनन्द की सीमा न रही । धनपाल की श्रद्धा जैन धर्म
और जैन मुनियों पर बढ़ी। जैन तत्वों को वह दही के प्रयोग से यथार्थ मानने लगा । मेधावी मनुष्य को समझाने में देरी नहीं लगती । युक्ति, प्रमाण और अनुभव से ऐसे लोग सच्चे सिद्धांत के कायल होते हैं। शोभन मुनि के सारगर्भित युक्तिपूर्ण उपदेश का असर धनपाल पर खूब पड़ा । धनपाल ने अपने उद्गारों को वचन द्वारा व्यक्त करते हुए शोभन मुनि के आगे कहा, "आपने श्रमण होकर सचमुच ही अपने ब्राह्मण कुल को उज्ज्वल बनाया है । आप धन्यवाद के पात्र हैं, आप संसार के प्रलोभनों से मुक्त इन्द्रिय विजेता है और समस्त शास्त्रों के ज्ञाता है। मुझे भी आत्मोन्नति करनेवाले सच्चे सिद्धान्त बताओ ।" शोभन मुनि ने धनपाल कवि की जिज्ञासा
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