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महाकवि शोभन और उनका काव्य
सुनकर सर्वदेव का हृदय बहुत ही थर्रा गया । वह व्याकुल होने लगा। समझ में न आता था कि अब क्या करें? इतने में सर्षदेव का छोटा पुत्र पिता के समक्ष उपस्थित होकर कहने लगा -"पिता जी, आप किसी प्रकार की चिन्ता न करें। आपके उपकार का बदला देने की मैं पूरी प्रतिज्ञा करूँगा।” इतना सुनते ही सर्वदेव के अंग प्रत्यङ्गों में आनन्द ही आनन्द छागया। शोभन अपने पिता के सच्चे पुत्र थे और "गुरोराज्ञा गरीयसी" के सिद्धान्त को पूर्णतया माननेवाले थे। जैन साधुओं के अहिंसा, तप तथा संयम के महत्व को भी ये पूर्णतया समझते थे । अतएव इन्होंने अपने पिता की प्रतिज्ञा को पूरी करने का बीड़ा उठाया ।
शोभन की दोक्षा
(जैन साधु होना) सतुष्ठ होकर सर्वदेव ने अपने पुत्र शोभन को आशीर्वाद देकर पूर्णभक्ति पूर्वक आचार्यश्री को अर्पण कर दिया। आचार्यश्री ने भी शोभन को दीक्षा देकर ( साधु बना कर ) अन्यत्र प्रयाण किया । महेन्द्रसूरि ने थोडे ही समय में जैनागमादि तथा विविध प्रकार की विद्या प्रदान करके अपने शिष्य शोभन में अनुभव और पाण्डित्य भर कर नवोन तेज उत्पन्न कर दिया ।
शोभन मुनि की प्रगति गुरुसेवा से शोभन मुनि ने एक ओर तो सम्यग्-द
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