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महाराजा कुमारपाल चौलुक्य
(७) कुमारपाल ने विक्रम सं० १२१६ मार्गमार्ष शुक्ल २ को उत्सवपूर्वक जैन धर्म स्वीकार कर १२ व्रत (धार्मिक
१
नियम ) ग्रहण किए ।
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(८) हेमचन्द्र के जन्मस्थल और दीक्षास्थल पर कीमती मन्दिर बनवाए ।
(९) इमेशा योग-शास्त्र और वीतराग स्तोत्र का स्वाध्याय करता था ।
जैन होने के बाद कुमारपाल की कीर्त्ति खूब बढी । अच्छे-अच्छे जैन कवियों और विद्वानों ने उस की कीर्तिगाथा गाई । व्याकरणादि ग्रंथों में उल्लेख किया। ग्रन्थकारों ने इस को परमार्हत और राजर्षि कहा है ।
१.
कुमारपाल के कुछ शैव और वैष्णव मन्दिरों के शिलालेखों में 'उमापतिवरलब्ध' विशेषण आता है । इस के आधार पर श्रीयुत के 'हर्षदाय ध्रुव ने प्रियदर्शना' की प्रस्तावना में कुमारपाल का जैन न होना लिखा है, जो ठीक नहीं जँचता; क्योंकि वि० सं० १२१६ के पहले के लेखों में ही वैसा विशेषण दिखता है । तब तक वह जैन नहीं हुआ था । दूसरा कारण यह भी है कि चौलुक्य-कुल के मान्यदेव परंपरा से सोमनाथ महादेव है, अतः जैन होने के बाद भी उस के लिए 'उमापतििवरलब्ध' कोई लिखे तो अनुचित नहीं है । जैन होने के बाद कुल परंपरा छोडने को जैन धर्म नहीं कहता । जैन होने के बाद भी इन्द्रभूतिं गणधर ने गौतम गोत्र रक्खा था ! टॉड राजस्तान कर्ता टॉड साहब ने जैन बौद्ध को एक मानकर कुमारपाल को बोद्ध धर्मी लिखा है । पृ० ७०५ |
साधु
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