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महराजा कुमारपाल चौलुक्य
आचार्य का निर्णय सुन कर कुमारपाल बहुत चमत्कृत हुआ । उसके मन में वडी श्रद्धा हुई । प्रसन्न हो कर उस ने हेमचन्द्रमृरि से कहा-आपकी बात सिद्ध होगी तो आप ही राजा है, मैं तो आपका दास रहूँगा । आचार्य ने कहा कि हम तो निःस्पृही हैं। हमें राज्य से कोई प्रयोजन नहीं । कामिनी-काञ्चन को हम स्पर्श तक नहीं करते । साहित्य-सेवा और धर्मोपदेश हमारा व्यवसाय है । तुम अपनी कृतज्ञता के लिए जैन-धर्म और देश की सेवा करने का प्रयत्न करना । आचार्य का वचन बड़ी श्रद्धा से कुमारपाल ने स्वीकार किया । कुमारपाल और हेमचन्द्र की यह पहली ही मुलाकात थी । परन्तु इन में गुरु-शिष्य का सम्बन्ध जुड़ गया, जो दिन-बदिन इतना बढ़ा कि चाणक्य और चन्द्रगुप्त की दूसरी आवृत्ति जैसा हो गया ।
मन्त्री उदयन ने हेमाचार्य के कहने से कुमारपाल का योग्य सत्कार कर कुछ धन दे कर उस को रवाना किया । कहा जाता है कि हेमचन्द्र भी इस की रक्षा के लिए सावधान रहते थे । कई बार हेमचन्द्र ने अपने उपाश्रय में छिपाकर इसको बचाया।
कुमारपाल मालवे में उज्जैन गया। वहाँ कुडङ्गेश्वर
१. यद्यदः सत्यं तदा भवानेव नृपतिः, अहं तु त्वचरणरेणुः । प्र० चि० कुमारपाल-प्रबन्ध-पृ० १२६ ।
__२. यह महाकाल का मन्दिर होना चाहिए । जैन इतिहास कहता है कि इस का निर्माता जैन था । इस में अवन्ती पाश्वनाथ की मूर्ति थी, परन्तु ब्राह्मणों ने उस को उठा कर अपनी सत्ता जमा ली दे० प्रबन्धचिन्तामणि ।
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