Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा १६-२०
गुणम्यान/२१ यह उपलक्षण मात्र है । अथवा मिथ्या शब्द का अर्थ वित्तथ और दष्टि शब्द का अर्थ रुचि, श्रद्धा या प्रत्यय है । इसलिए जिन जीवों की रुचि वितथ होनी है, वे मिथ्यादृष्टि हैं।
'तं मिछस जमसदहणं तच्चाण होइ प्रत्याणं ।
संसइदमभिगहियं प्रणभिग्गहिर्वे ति तं तिविहं । - जो तत्त्वार्थ के विषय में अश्रद्धान उत्पन्न होता है, वह मिथ्यात्व है। उसके संशयित, अभिगृहीत और अनभिगृहीत ये तीन भेद भी हैं।
'सहहह असभावं' अपरमार्थ स्वरूप असद्भूत अर्थ का ही मिथ्यात्व के उदयवश यह मिथ्यादृष्टि श्रद्धान करता है । 'उवट्ठ व अणुवाहट्ट' अर्थात् उपदिष्ट या अनुपविष्ट दुर्गि का ही दर्शन मोह के उदय से मिथ्यादष्टि श्वद्धान करता है । इस गाथासुत्र वचन द्वारा व्यूग्राहित और इतर के भेद से मिथ्यादृष्टि के दो भेदों का प्रतिपादन किया गया है । २ शेष सब सुगम है।
मासादन गुगास्थान का स्वरूप प्रादिमसम्मत्तता समयादो छायलित्ति धा सेसे । अरणअण्णदरुदयादो गासियसम्मो त्ति सासरणवखो सो ।।१६।। ३सम्मत्तरयणपश्वयसिहरादो मिच्छभूमिसमभिमुहो ।
गासियसम्मत्तो सो सासरगणामो मुणेयधो ॥२०॥ अर्थ-ग्रादि सम्यक्त्व (प्रथमोपशम सम्यक्त्व) के काल में एक समय से लेकर छह-मावलि तक काल मेष रहने पर अभ्यतर अनन्तानुबन्धीकषाय का उदय हो जाने से सम्यक्त्व का नाश हो जाता है, वह सामादन नामक गुणस्थान है ।।१६।। सम्यग्दर्शनरूपी रत्न गिरिके शिखर से गिरकर मिथ्यात्वरूपी भूमि के अभिमुख है, अतएब सम्यग्दर्शन नष्ट हो चुका है, उसको सासादन नामक गुरणस्थान जानना चाहिए ।।२०।।
विशेषार्थ-सम्यक्त्व की विराधना करना यह सासादन का अर्थ है। शङ्गा-सासादन किस निमित्त से होता है?
समाधान-सासादन परिणामों के निमित्त से होता है, परन्तु वह परिणाम निष्कारण नहीं होता, क्योंकि वह अनन्तानुवन्धी के तीन उदय से होता है।
सम्यग्दर्शन से विमुख होकर जो अनन्तानुबन्धी के तीव्र उदय से उत्पन्न हुना तीव्रतर संक्लेशरूप दूषित मिथ्यात्व के अनुकूल परिणाम होता है, वह सासादन है । (ज.ध.पु. ७ पृ. ३१३)
शङ्का-सामादन गुणस्थान वाला जीव मिथ्यात्वकर्मोदय के अभाव में मिथ्यादृष्टि नहीं है.
१. प. पु. १. पृ. १६२ (प्रथम संस्करग) । ज. प. पु. १२ पृ. ३२३ । २. ज. प. पु. १२ पृ. ३२३ । ३. प्रा. पं. सं. म. १ गाथा , घ, पु. १ पु. १६६ गा. १०८ । ४. 'मिच्छभाव' यह भी पाठ है।