Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गामा १५-१८
गुणस्थान / १६ जीव को यथार्थ धर्म रुचिकर नहीं होता ||१७|| मियादृष्टिजीव नियम से उपदिष्ट यथार्थ प्रवचन का तो श्रद्धान नहीं करता, किन्तु उपदिष्ट या अनुपदिष्ट असद्भाव (असत् पदार्थों ) का श्रद्धान करता है ।। १५ ।।
विशेषार्थ दर्शनमोहनीयकर्म की मिध्यात्वप्रकृति के उदय से मिथ्यात्वभाव होता है । मिथ्यात्व प्रकृति के उदय के बिना मिथ्यात्त्रभाव उत्पन्न नहीं हो सकता, क्योंकि मिथ्यात्व विभावभाव है, अशुद्धभाव है । दूसरे द्रव्य के बिना विभाव या अशुद्धता नहीं या सकती । कुन्दकुन्दाचार्य ने समयसार में भी कहा है
जह फलिमणी सुद्धो न सयं परिणम रायमाईहि । रंगिज्जदि श्रहिं यु सो रत्तादीहिं बम्बे ॥ २७८ ॥ एवं णाणी सुद्धो ण सयं परिणमइ रायभाईहि । राइज्जदि श्रहिं यु सो रागावोहि कोलेहिं ॥ २७६ ॥
- जिस प्रकार स्फटिकमरिंग स्वयं शुद्ध है, वह ललाई प्रादि रंग स्वरूप स्वयं तो नहीं परिणमती किन्तु दूसरे लाल आदि द्रव्यों से ललाई आदि रंगस्वरूप परिणमती है, इसी प्रकार ज्ञानी ( आत्मा ) आप शुद्ध है, वह रागादि भावों से स्वयं तो नहीं परिणमता, परन्तु रागादि दोषयुक्त अन्य द्रव्यों से ( मोहनीय कर्मोदय से ) रागादिरूप किया जाता है। अमृतचन्द्र प्राचार्यदेश ने भी समयसारकलश में कहा है
न जातु रागाविनिमित्तभावमात्मात्मनो याति यथार्ककान्तः । तस्मिनिमित्तं परसंगएव वस्तुस्वभावोऽयमुदेति तावत् ॥ १७५ ॥
- अपने रागादिभाव का निमित्त आत्मा स्वयं नहीं होता, उस आत्मा में रागादिक होने में निमित्त परद्रव्य का सम्बन्ध ही है । यहाँ सूर्यकान्तमणि का दृष्टान्त है— जैसे सूर्यकान्तमरिण स्वयं तो प्रतिरूप नहीं परिणमती, उसमें सूर्य का त्रिम्ब अग्निरूप होने में निमित्त है । वस्तु का यह स्वभाव उदय को प्राप्त है ।
सम्मत्तपडिणिबद्ध मिच्छतं जिणवरेहि परिकहियं ।
तस्सोक्ष्येण जीवो मिच्छादिद्वित्ति णादध्वो ॥१६११६ [ स.सा. ]
टीका - "सम्यक्त्वस्य मोक्ष हेतो: स्वभावस्य प्रतिबन्धकं किल मिथ्यात्वं नत्तु स्वयं कर्मैव तदुदयादेव ज्ञानस्य मिथ्यादृष्टित्वं " (अमृतचन्द्राचार्य)
गाथार्थ सम्यक्त्व को रोकने वाला मिध्यात्वकर्म है, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है ( मैंनेकुन्दकुन्द प्राचार्य ने अपनी ओर से नहीं कहा है ) । उस मिथ्यात्वकर्मोदय से जीत्र मिध्यादृष्टि हो जाता है ।।१६१ ।।
टीकार्थ- मोक्ष के हेतुभूत सम्यक्त्व स्वभाव को रोकने वाला निश्चय से मिथ्यात्व है और वह मिथ्यात्व द्रव्यकर्मरूप ही है । उसके उदय से ज्ञान (जीव ) के मिथ्यास्त्र होता है ।
जीव का वह मिथ्यात्वभाव एकान्त विपरीत, विनय, संशय और अज्ञानरूप पाँच प्रकार
का है।